आज अपनी काव्यकृति "मिट्टी की पलकें" से आतंकवाद पर कुछ मुक्तक लेकर आपके बीच उपस्थित हुआ हूँ ! आशा है पूर्व की भांति आप अपने स्नेह-पूरित विचारों से अनुग्रहीत करेंगे !
आतंकवाद
तेज नाख़ून से वार करते,
ख़ून से ये बहुत प्यार करते !
पास इनके कफ़न लेके जाना,
ये तो लाशों का व्यापार करते !
चीख़ से ये शहर भर गया है,
कोई बहरा इन्हें कर गया है !
क़त्ल इतने हुए हैं यहाँ पर,
दर्द भी दर्द से मर गया है !
मौत का साज़ो-सामान लेकर ,
ख़ौफ गलियों में रहने लगा है!
देखकर इतना बेदर्द मंज़र,
ख़ून आँखों से बहने लगा है !
उस गली से कभी न गुज़रना,
लोग ज़िंदा जलाये गए हैं !
बच गईं चंद पत्थर की आँखें ,
जिनमें सावन छुपाये गए हैं !
कोई पहचान इनकी बताओ ,
नोचकर अंग खाए गए हैं !
हाथ के ज़ख्म में चूड़ियों के,
चंद टुकड़े भी पाए गए हैं !
.......... अगले अंकों में जारी
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
35 टिप्पणियां:
आक्रोश की आग में प्रतीक्षा.....
दर्द भी दर्द से मर गया है !
दर्द हद से बढ़ता है तो दर्द नहीं रहता ... शायद
सुन्दर
कोई पहचान इनकी बताओ ,
नोचकर अंग खाए गए हैं !
हाथ के ज़ख्म में चूड़ियों के,
चंद टुकड़े भी पाए गए हैं !
आपकी उक्त पंक्तिया बहुत कुछ कह रही है. सुन्दर लेखन
खौफ इतना है कि आँख से आँसू नही खून । पूरी कविता आज के हालातों को बयाँ कर रही है ।
दर्द भी दर्द से मर गया है.... ! ज्ञानजी के श्रीमुख से यह ग़ज़ल सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है मुझे.... इसीलिये शेष अशआर का बेसब्री से इंतिजार कर रहा हूँ. धन्यवाद !
ज्ञानचंद जी,
बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति है आपकी रौंगटें खड़े कर देने वाली......बहुत नंगा सच बयां किया है आपने इस पोस्ट के माध्यम से.....शुभकामनायें|
बहुत खूब और पूरा सच...
एक-एक पंक्ति सत्य एवं आक्रोश से भरी हुई थी... बधाई...
बेहतरीन रचना ... सच ही है कि अब हिंसा देखते दखते सब संवेदनहीन हो चुके हैं और डरे सहमे लोगों पर और कहर ढा रहे हैं आतंकवादी ..
आपका लेखन सोचने को विवश करता है...बहुत असरदार तरीके से आपने अपने भाव व्यक्त किये हैं ...मेरी बधाई स्वीकार करें...
नीरज
naam ko sarthak karta lekhan intzar hai agalee post ka.
मौत का साज़ो-सामान लेकर ,
ख़ौफ गलियों में रहने लगा है!
देखकर इतना बेदर्द मंज़र,
ख़ून आँखों से बहने लगा है !
बहुत ही प्रभावी पंक्तियाँ हैं.... सच यही हाल है.... आभार एक संवेदनशील रचना के लिए
bahut acchi rechna....bdhayi....
आज पहली बार आप के ब्लॉग पर आई हूं और बहुत उम्दा लेखन से रू ब रू हुई हूं ,सुंदर मुक्तक ,उम्दा ग़ज़ल ,यहां तो साहित्यि का ख़ज़ाना है
बधाई
कविता भावुक कराती हैं पर तस्वीरें विचलित!!कृपया इनसे परहेज़ करें!!
सभी पाठकों और शुभचिंतकों को मेरा उत्साह बढ़ाने के लिए धन्यवाद !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
आदरणीय ज्ञानचंद जी,
नमस्कार !
बहुत खूब और पूरा सच
.....बेहतरीन रचना ..
मर्मज्ञ जी,
ये मुक्तक...अपने समय और समाज की एक बदनुमा सच्चाई से रू-ब-रू हैं...! यक़ीनन, लिखते समय आपके दिलो-दिमाग़ में आतंकवाद को लेकर काफी हलचल रही होगी...वही टपक पड़ी कग़ज़ पर...और मुक्तक बन गयी...ख़ुद-ब-ख़ुद...है न?
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जितेन्द्र ‘जौहर’
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भयावह।
मौत का साज़ो-सामान लेकर ,
ख़ौफ गलियों में रहने लगा है!
देखकर इतना बेदर्द मंज़र,
ख़ून आँखों से बहने लगा है !
सही कहा आज के हालात देख कर बहुत दुख होता है लेकिन शायद हम सब बेबस हैऔर झेलने के आदी हो गयी हैं। धन्यवाद।
मर्मज्ञ जी आपकी इस दर्द एवं आक्रोश युक्त रचना का प्रभाव चित्रों के बिना भी पूर्णतया उजागर हो रहा है. अतः मेरा अनुरोध है कि आप इन विचलित करने वाले चित्रों को हटा लें तो शायद अधिक अच्छा लगेगा.
हृदय विदारक दृश्य प्रस्तुत कर दिया है आपने।
मार्मिक।
बेहतरीन रचना की प्रस्तुति .
हाथ के ज़ख्म में चूड़ियों के, चंद टुकड़े भी पाए गए हैं !
ओह ! कितना दर्द छुपा है इन पंक्तियों में ।
कौन्सियस को झझकोरती रचना ।
हाथ के ज़ख्म में चूड़ियों के,
चंद टुकड़े भी पाए गए हैं !
....मार्मिक, हृदयस्पर्शी पंक्तियां हैं। सुंदर रचना के लिए साधुवाद ढ़ेर सारी बधाईयाँ।
सत्य उद्घाटित करती रचना!
bahut marmik
bahut marmik
bahut dardbhair par khoobsurat rachna!
तेज नाख़ून से वार करते,
ख़ून से ये बहुत प्यार करते !
पास इनके कफ़न लेके जाना,
ये तो लाशों का व्यापार करते !
अब इससे आगे क्या कहें ...बहुत संजीदा रचना
चलते -चलते पर आपका स्वागत है
Hanth ke jakhm mein chudiyon ke,
chand tukre bhi paye gaye hain.Marmsparshi post.Mera dusara sasamaran aapke injaar mein hai.
उस गली से कभी न गुज़रना,
लोग ज़िंदा जलाये गए हैं !
बच गईं चंद पत्थर की आँखें ,
जिनमें सावन छुपाये गए हैं ...
बहुत कुछ शब्दों के माध्यम से कह दिया है आपने ... शोले से निकल रहे हैं जैसे दिल से ....
लाजवाब ज्ञान जी ... बेहतरीन रचना ..
aaj hi varanasi me visphot ki news padi...aur aaj hi aapki kavita padi...satik chitran...
क्या कहूँ.....प्रशंसा को शब्द नहीं मेरे पास...
अति प्रभावशाली लेखनी !!!
इस अप्रतिम लेखनी को नमन !!!!!
उस गली से कभी न गुज़रना,
लोग ज़िंदा जलाये गए हैं !
बच गईं चंद पत्थर की आँखें ,
जिनमें सावन छुपाये गए हैं ...
ज्ञानचंद जी,नमस्कार.एक संवेदनशील प्रस्तुति.सुन्दर लेखन................
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