आज अपनी काव्यकृति "मिट्टी की पलकें" से आतंकवाद पर कुछ मुक्तक लेकर आपके बीच उपस्थित हुआ हूँ ! आशा है पूर्व की भांति आप अपने स्नेह-पूरित विचारों से अनुग्रहीत करेंगे !
आतंकवाद
तेज नाख़ून से वार करते,
ख़ून से ये बहुत प्यार करते !
पास इनके कफ़न लेके जाना,
ये तो लाशों का व्यापार करते !
चीख़ से ये शहर भर गया है,
कोई बहरा इन्हें कर गया है !
क़त्ल इतने हुए हैं यहाँ पर,
दर्द भी दर्द से मर गया है !
मौत का साज़ो-सामान लेकर ,
ख़ौफ गलियों में रहने लगा है!
देखकर इतना बेदर्द मंज़र,
ख़ून आँखों से बहने लगा है !
उस गली से कभी न गुज़रना,
लोग ज़िंदा जलाये गए हैं !
बच गईं चंद पत्थर की आँखें ,
जिनमें सावन छुपाये गए हैं !
कोई पहचान इनकी बताओ ,
नोचकर अंग खाए गए हैं !
हाथ के ज़ख्म में चूड़ियों के,
चंद टुकड़े भी पाए गए हैं !
.......... अगले अंकों में जारी
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ