गिर पड़े आसमाँ न ज़मीं पर,
अब सुनाता हूँ मैं वो कहानी!
सुन सकोगे जो मासूम चीख़ें,
सूख जाएगा आँखों का पानी!
वक़्त भी सोच कर गड़ गया है,
हो गए कैसे इंसां कसाई!
देख कर नन्हें फूलों से बच्चे,
इनको थोड़ी दया भी न आई!
छोटी छोटी अंगुलियाँ न देखो,
हादसों की सिसकियाँ बड़ी हैं!
माँ के आँचल में छुपने को आतुर,
नन्हें बच्चों की लाशें पड़ी हैं!
अब हँसेंगे खिलौनें कभी ना,
अब न बन्दर चलेगा ठुमक कर!
माँ ने सपनें सँजो कर बुने जो,
रोयेगा सर्दियों में वो स्वेटर!
मौत के बाद भी कुछ भरम था,
होंठ उसका अभी भी नरम था!
था कलेजे का मासूम टुकड़ा,
लाश ठंडी थी पर खूं गरम था!
........ अगले अंकों में जारी
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ