ज़िन्दगी की भूलभुलैया में हम ऐसे खो जाते हैं कि कभी कभी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी सच्चाई "मौत" को ही भुला बैठते हैं ! कभी सोच कर देखिये अगर मौत ज़िन्दगी के साथ नहीं होती तो क्या होता ! क्या ज़िन्दगी के मायने ऐसे ही होते जैसे आज हैं ! गंतव्य विहीन सफ़र का क्या कोई औचित्य होता? तो क्या जीवन की सार्थकता मृत्यु से प्रेरित होती है ?
आज सोचा जो अटल है क्यों न उसके बारे में कुछ लिखा जाय !
आपके सारगर्भित विचार सादर आमंत्रित है !
मौत
चंद यादों का कल ज़िन्दगी है,
धड़कनों की नक़ल ज़िन्दगी है!
ज़िन्दगी को कहाँ ढूढते हो,
मौत की हमशकल ज़िन्दगी है!
हम न ठहरेंगे अब इस ज़मीं पर,
प्राण आकाश का हो चुका है !
दर्द तो यूँ ही ज़िन्दा खड़ा है ,
क़त्ल अहसास का हो चुका है!
हम बुझायेंगे साँसे सम्भल के ,
प्राण फिर भी बहेगा उबल के !
आ रही नींद तो हल्के हल्के
कौन जाने चिपक जाएँ पलकें !
एक मुर्दा कफ़न से चुराकर,
आईने में उतारा गया है !
मृत्यु का हाय श्रृंगार कैसा ,
झील में चाँद मारा गया है !
........ अगले अंकों में जारी
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ