आतंकवाद की यह कविता उन निर्दोष लोगों को समर्पित है जिनके सपनें आतंकवाद की आग में जल कर भस्म हो गए,जिन्हें असमय अपनों को छोड़ कर जाना पड़ा , मगर उनके परिजन आज भी उनकी यादों को सीने से लगाये पागलों की तरह जीने के लिए मज़बूर हैं !
आतंकवाद: भाग-२
दूर बिखरे हैं बागों के टुकड़े ,
गीत गाते हैं रागों के टुकड़े!
राख के ढेर में ढूढ़ते हैं ,
अपने अपने चिरागों के टुकड़े!
कल तो आँगन में किलकारियाँ थीं,
फूल थे और फुलवारियाँ थीं!
साँस ले ली मगर ये न जाना,
इन हवाओं में चिंगारियाँ थीं!
ये वही ढेर है विस्तरों का,
ये वही ढेर है विस्तरों का,
ख़्वाब जिन पर संवारे गए थे!
ख़ून के दाग़ यूँ कह रहे हैं,
नींद में लोग मारे गए थे!
कल इन्हें तो पता भी नहीं था ,
इतनी बेदर्द तक़दीर होगी!
वक़्त की कील पर झूलने को,
आज इनकी भी तस्वीर होगी!
................अगले अंकों में जारी
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
54 टिप्पणियां:
भावों को बखूबी समेटा है ...
आतंकवाद की वीभिषिका को आपने बहुत तीखेपन के साथ शब्द दिए हैं। प्रभावी रचना।
संगीता जी,मनोज जी ,
मेरा हौसला बढ़ाने के लिए धन्यवाद एवं आभार !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
उफ़..... रचना में भाओं का प्रावाह ऐसा तीब्र है कि पढ़ते हुए लगता है किसी ने अभी-अभी मुरछाए घाव को कुरेद दिया हो... दर्द की भीषण अभिव्यक्ति ! साधुवाद !!
ज्ञानचंद जी,
बहुत ही सुन्दर.....इस रचना पर मैं आपको सलाम करता हूँ.....
अत्यंत मार्मिक रचनाएँ .. पीड़ा और आक्रोश दोनों ही नज़र आया
आतंकवाद पर लिखना समय की मांग है ,आपने लिखकर एक ज़िम्मेदार नागरिक और साहसी कवि होने का धर्म निभाया है.
मेरी नई पोस्ट देखें मैंने भी इस विषय पर शेर कहे हैं.
आतंकवाद पर ओजपूर्ण कविता कम देखने को मिली है.. यह कविता मंचीय गुणों से भरपूर है..
मार्मिक चित्रण।
दिल को छू लेने वाली कविता!!
संगीता जी,
कविता को चर्चा मंच पर स्थान देकर मेरा उत्साहवर्धन करने हेतु आभार !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बहुत बड़ी और खरी बात कह दी आप ने...। मार्मिकता मन को छू गई...।
मेरी बधाई...।
www.priyankakedastavez.blogspot.com
राख के ढेर में ढूढ़ते हैं ,
अपने अपने चिरागों के टुकड़े!
और आखिरी दो पँक्तियाँ पढते हुये आँखें नम हो गयी। कविता का एक एक शब्द दिल को छूता है। इस कृ्ति के लिये तो आपकी कलम को सलाम करूँगी। शुभकामनायें।
राख के ढेर में ढूढ़ते हैं ,
अपने अपने चिरागों के टुकड़े!
आतंकवाद की विभीषिका का बहुत मार्मिक और सटीक चित्रण..बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति..
maarmik rachna!!!
आतंकवाद के आतंक को बेहद मार्मिकता से प्रस्तुत किया है आपने । इतनी तीव्र भावना से ओतप्रोत ये कविता बहुत अलग है ।
आप मेरे ब्लॉग पर आये और कविता को सराहा । आपका बहुत आभार । स्नेह बनाये रखें ।
बहुत सही और सार्थक रचना
आतंकवाद पर एक सशक्त रचना !
bhavo ka marmik chitran pesh kiya hai aapne...
राख के ढेर में ढूढ़ते हैं ,
अपने अपने चिरागों के टुकड़े!
बहुत ही सुन्दर भावमय करते शब्द ...
मेरे ब्लाग पर आपके सर्वप्रथम आगमन का स्वागत एवं आभार, अपने ब्लाग से परिचित कराने के लिये ...।
विचलित कर देने वाले भावों से युक्त एक मार्मिक रचना.
अत्यंत मर्म भेदक रचनाएँ, पीड़ा व आक्रोश भाव सटीकता अभिव्यक्त हुआ है। आभार
कल इन्हें तो पता भी नहीं था ,
इतनी बेदर्द तक़दीर होगी!
वक़्त की कील पर झूलने को,
आज इनकी भी तस्वीर होगी!
घाव कैसे रिस रहा है…………दर्द का अनुभव हो रहा है…………………कितनी वेदना है ………………भावो का सुन्दर समन्वय्।
दूर बिखरे हैं बागों के टुकड़े , गीत गाते हैं रागों के टुकड़े! राख के ढेर में ढूढ़ते हैं , अपने अपने चिरागों के टुकड़े!
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आपकी रचना धरातल से जुड़ी हुई रचना है!
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अगले अंक की प्रतीक्षा है!
कल इन्हें तो पता भी नहीं था ,
इतनी बेदर्द तक़दीर होगी!
वक़्त की कील पर झूलने को,
आज इनकी भी तस्वीर होगी
गहन वेदना ..भावो की बेहतरीन अभिव्यक्ति.
अति सुन्दर रचना मन को छू लेने वाले विचारों को इस रचना में पिरोकर आपने बहुत ही सुन्दर बना दिया है।
हमारे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
मालीगांव
साया
लक्ष्य
"साँस ले ली मगर ये न जाना, इन हवाओं में चिंगारियाँ थीं!" सुन्दर रचना. आभार.
रौशनी की कलम से अँधेरा न लिख
रात को रात लिख यूँ सवेरा न लिख
पढ़ चुके नफरतों के कई फलसफे
इन किताबों में अब तेरा मेरा न लिख
बेहतरीन...
marmik!
achi abhivyakti...!
बहुत ही बेहतरीन रचना...
मार्मिक..भावपूर्ण प्रस्तुति..
मार्मिक, दर्द की अभिव्यक्ति सशक्त रचना
आतंकवाद का दर्द झेलते लोगो का दुख आप की रचना मे झलकता हे, धन्यवाद
आतंक का समय छोटा हो भले ही , घाव गहरे देता है ...
आतंकवाद की वेदना को अच्छी तरह प्रस्तुत कर रहे हैं आप !
पूरी कविता बहुत सुन्दर है परन्तु अन्तिम पद का बिम्ब चमत्कृत करता है।
आतंकवाद पर बहुत नुन्दर गीत। आभार,
करन जी,इमरान जी,वर्मा जी,कुंवर कुसुमेश जी,अरुण जी,प्रवीन जी,सलिल जी, प्रियंका जी,निर्मला जी,कैलाश जी,अनुपमा जी,आशा जी,डा.रामकुमार जी, डा.दिव्या जी, अर्चना जी, सदाजी, अश्विनी जी, सुज्ञ जी, वंदना जी, डा.रूपचंद जी, शिखा जी, सुरेन्द्र जी, सुब्रमनियम जी, सतीश जी, फिरदौस जी, अंजना जी, सुरेन्द्र जी, पूजा जी, डा.मोनिका शर्मा जी, रचना जी,राज भाटिया जी, वाणी जी , पुरुषोत्तम राय जी, और हरीश जी !
आपके विचार मेरी लेखनी में नई उर्जा संचारित कर रहे हैं! मेरा मनोबल बढाने के लिए आप सभी के प्रति मैं कृतज्ञता पूर्वक धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ !
अति विनम्रता के साथ भविष्य में आपके स्नेह की आकांक्षा भी रखता हूँ !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
दूर बिखरे हैं बागों के टुकड़े ,
गीत गाते हैं रागों के टुकड़े!
राख के ढेर में ढूढ़ते हैं ,
अपने अपने चिरागों के टुकड़े!
बहुत खूब ज्ञान जी ... आतंक का वीभत्स चेहरा सामने ला कर रख दिया है आपने इस रचना में ...
कल तो आँगन में किलकारियाँ थीं,
फूल थे और फुलवारियाँ थीं!
साँस ले ली मगर ये न जाना,
इन हवाओं में चिंगारियाँ थीं!
ओह .....बेहद मर्मस्पर्शी ...
जिनके सपने इन बारूदों में जलकर राख़ हो गए हैं....जिनकी साँसों ने उन चिंगारियों को महसूस किया है ....उस दर्द को इतनी शिद्दत से महसूस करना और उसे शब्द देना आप जैसा कवि ही कर सकता है.....
आतंकवाद की विभीषिका का मर्मस्पर्शी चित्रण आपने इन पंक्तियों में किया है । इसकी अगली कडी की भी प्रतिक्षा रहेगी । धन्यवाद...
वाराणसी बम धमाके के बाद बहुत जगह कवितायेँ पढ़ चूका हूँ इससे सम्बंधित...लेकिन आपकी ये कविता बहुत ऊपर स्थान पाएगी...
क्षमा करें अब इस विषय पर कविता उद्वेलित नहीं करती।
रौशनी की कलम से अँधेरा न लिख
रात को रात लिख यूँ सवेरा न लिख
पढ़ चुके नफरतों के कई फलसफे
इन किताबों में अब तेरा मेरा न लिख
ye panktiyan bahut pasand aayi
ओह...अतिमर्मिक रचना...
मन भर आया...
अत्यंत प्रभावशाली ढंग से आपने पीड़ा और विसंगतियों को रेखांकित किया है..
मर्म को छू कर झकझोरने जाने में समर्थ है रचना...
@ मर्मज्ञ भाई ,
ब्लॉग जगत में अच्छे लेखकों की कमी नहीं है, मगर अच्छे दिलों की कमी अक्सर खटकती है ! लगता है आपने आकर वह कमी पूरी कर दी है , कम से कम जितना मैंने आपको समझा है, ब्लॉग जगत में दिल जीतने के साथ साथ, अपने गहरे निशान छोड़ने में समर्थ होंगे ....
मेरी हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार करें !
सादर
@ दिगंबर नासवा जी,@ हरकीरत जी,@ सुशील जी,@ अवि जी,@ राजेश जी,@ निर्झर नीर जी,
आप सभी का ब्लॉग पर आकर अपने विचारों द्वारा मुझे प्रोत्साहित करने हेतु धन्यवाद और आभार !
@ रंजना जी,
बहुत दिनों बाद आपको ब्लॉग पर पाकर ऐसा लगा जैसे कोई अपना घर वापस आ गया है !
सुस्वागतम!
@ सतीश जी,
आपका स्नेह पाकर मैं धन्य हूँ !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बहुत शशक्त रचना है आपकी..मेरी बधाई स्वीकार करें...
नीरज
ये वही ढेर है विस्तरों का,
ख़्वाब जिन पर संवारे गए थे!
ख़ून के दाग़ यूँ कह रहे हैं,
नींद में लोग मारे गए थे!
... bahut sundar ... behatreen !!!
दूर बिखरे हैं बागों के टुकड़े ,
गीत गाते हैं रागों के टुकड़े!
राख के ढेर में ढूढ़ते हैं ,
अपने अपने चिरागों के टुकड़े!
Aapne to nishabd kar diya! Pahli baar aayi aapke blog pe. Ab to aate hee rahungee.
ये वही ढेर है विस्तरों का,
ख़्वाब जिन पर संवारे गए थे!
ख़ून के दाग़ यूँ कह रहे हैं,
नींद में लोग मारे गए थे!
.......दिल को छू लेने वाली कविता!!
मेरे ब्लाग पर आपके सर्वप्रथम आगमन का स्वागत एवं आभार,
वह बहुत सुंदर लिखा !
किसी ने पूछा क्या बढ़ते हुए भ्रस्टाचार पर नियंत्रण लाया जा सकता है ?
हाँ ! क्यों नहीं !
कोई भी आदमी भ्रस्टाचारी क्यों बनता है? पहले इसके कारण को जानना पड़ेगा.
सुख वैभव की परम इच्छा ही आदमी को कपट भ्रस्टाचार की ओर ले जाने का कारण है.
इसमें भी एक अच्छी बात है.
अमुक व्यक्ति को सुख पाने की इच्छा है ?
सुख पाने कि इच्छा करना गलत नहीं.
पर गलत यहाँ हो रहा है कि सुख क्या है उसकी अनुभूति क्या है वास्तव में वो व्यक्ति जान नहीं पाया.
सुख की वास्विक अनुभूति उसे करा देने से, उस व्यक्ति के जीवन में, उसी तरह परिवर्तन आ सकता है. जैसे अंगुलिमाल और बाल्मीकि के जीवन में आया था.
आज भी ठाकुर जी के पास, ऐसे अनगिनत अंगुलीमॉल हैं, जिन्होंने अपने अपराधी जीवन को, उनके प्रेम और स्नेह भरी दृष्टी पाकर, न केवल अच्छा बनाया, बल्कि वे आज अनेकोनेक व्यक्तियों के मंगल के लिए चल पा रहे हैं.
http://www.maha-yatra.com/
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