मिट्टी की पलकें
मेरी आँखों को
एकटक घूरती अनगिनत आँखें
हर आँख में धंसी
हज़ार हज़ार आँखें
और उन पर ओढ़ाई गईं
पुरानी पुरानी
मिट्टी की बनी पलकें !
ये पलकें,
लगता है-
खुशियों के बह जाने से बनी हैं ,
किसी महल के ढह जाने से बनी हैं !
चुपचाप
मौन-शांत निरीह सी
सदियों से बेजान टंगी,
खुली की खुली ये पलकें
अपनी बुझी आँखों से
न जाने कब से घूरे जा रही हैं
मेरी उन पलकों को
जो हिल रही हैं
छूने की कोशिश में
उन सपनों की खुशियों को
जो
आँखों की झीलों में खिल रही हैं !
उनमें भी
मेरी पलकों की तरह हिलने की गहरी प्यास है
तभी तो
ये सारी की सारी मिट्टी की पलकें
इस कदर उदास हैं !
लगता है-
आज आँसुओं को बहना ही पड़ेगा,
मुखौटा हटाकर
इनसे कहना ही पड़ेगा -
लो नोच लो मेरे चहरे को
और देख लो मेरी वो आँखें
जो बह गयी हैं खण्डहर बनकर
आंसुओं में ढल के!
मेरे पास भी हैं
तुम्हारी ही तरह
मिट्टी की बनी मेरी असली पलकें !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ