आतंकवाद की यह कविता उन निर्दोष लोगों को समर्पित है जिनके सपनें आतंकवाद की आग में जल कर भस्म हो गए,जिन्हें असमय अपनों को छोड़ कर जाना पड़ा , मगर उनके परिजन आज भी उनकी यादों को सीने से लगाये पागलों की तरह जीने के लिए मज़बूर हैं !
आतंकवाद: भाग-२
दूर बिखरे हैं बागों के टुकड़े ,
गीत गाते हैं रागों के टुकड़े!
राख के ढेर में ढूढ़ते हैं ,
अपने अपने चिरागों के टुकड़े!
कल तो आँगन में किलकारियाँ थीं,
फूल थे और फुलवारियाँ थीं!
साँस ले ली मगर ये न जाना,
इन हवाओं में चिंगारियाँ थीं!
ये वही ढेर है विस्तरों का,
ये वही ढेर है विस्तरों का,
ख़्वाब जिन पर संवारे गए थे!
ख़ून के दाग़ यूँ कह रहे हैं,
नींद में लोग मारे गए थे!
कल इन्हें तो पता भी नहीं था ,
इतनी बेदर्द तक़दीर होगी!
वक़्त की कील पर झूलने को,
आज इनकी भी तस्वीर होगी!
................अगले अंकों में जारी
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ