देश का यूँ पतन नहीं होता
एक छोटा सुराख़ है बाकी ,
देख लेना कोई ग़म आ न जाए !
अँगुलियों के बढ़ गए नाख़ून फिर
ये उदासी इस शहर को खा न जाए!
लुट रही है सिया जंगलों में,
कर सका ना कोई राम रक्षा !
अब ना लपटों में सीता जलेगी,
अब ना देगी कोई भी परीक्षा !
अब कभी हँसने का मन नहीं होता
क्या करें कुछ जतन नहीं होता !
गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !
अपने पैरों के छालों से डरकर,
रास्ते मखमली न बनाना !
बेबसी के शहर में कभी भी ,
हादसों की गली न बनाना !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ