ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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Bangalore, Karnataka, India
मैंने अपने को हमेशा देश और समाज के दर्द से जुड़ा पाया. व्यवस्था के इस बाज़ार में मजबूरियों का मोल-भाव करते कई बार उन चेहरों को देखा, जिन्हें पहचान कर मेरा विश्वास तिल-तिल कर मरता रहा. जो मैं ने अपने आसपास देखा वही दूर तक फैला दिखा. शोषण, अत्याचार, अव्यवस्था, सामजिक व नैतिक मूल्यों का पतन, धोखा और हवस.... इन्हीं संवेदनाओं ने मेरे 'कवि' को जन्म दिया और फिर प्रस्फुटित हुईं वो कवितायें,जिन्हें मैं मुक्त कंठ से जी भर गा सकता था....... !
!! श्री गणेशाय नमः !!

" शब्द साधक मंच " पर आपका स्वागत है
मेरी प्रथम काव्य कृति : मिट्टी की पलकें

रौशनी की कलम से अँधेरा न लिख
रात को रात लिख यूँ सवेरा न लिख
पढ़ चुके नफरतों के कई फलसफे
इन किताबों में अब तेरा मेरा न लिख

- ज्ञान चंद मर्मज्ञ

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शनिवार, 5 मार्च 2011

आत्मदाह




                                                               आत्मदाह 



            कोशिशें,
            किसी उपग्रह से असफलता का चक्कर लगाती हुईं 
            मेरे ज़ख्मों की डायरी को दीमक बनकर चाट गयीं !
            भावनाएं,
            अनियंत्रित चुम्बकीय मान्यताओं से चिपक कर ठूँठ हो गयीं 
            और सपने ,
            आँखों की गहराई नापते-नापते सागर की सच्चाई हो गए !
            फिर भी मेरा विश्वास 
            हाथों में बहारों का राजाज्ञा -पत्र लिए यूँ ही 
            राजमहल की सड़कों पर पसरे-पसरे 
            उस सोने की मेहराब को देखता रहा ,
            जिसका
            कम से कम एक अणु
            मेरे संकल्प का पुनर्जनम है ,
            मेरे ख़ून की शहादत  है !
            मगर आज
            मैं तुम्हारा राजाज्ञा-पत्र तुम्हें वापस करता हूँ,
            तुम
            मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
            मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
            जिसकी आँच में 
            अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
            और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
            कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !

                                                           -ज्ञानचंद मर्मज्ञ 

                                                                                                         -     

46 टिप्‍पणियां:

kshama ने कहा…

मगर आज
मैं तुम्हारा राजाज्ञा-पत्र तुम्हें वापस करता हूँ,
तुम
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
Gazab kaa likha hai!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

कोशिशें,
किसी उपग्रह से असफलता का चक्कर लगाती हुईं
मेरे ज़ख्मों की डायरी को दीमक बनकर चाट गयीं !
भावनाएं,
अनियंत्रित चुम्बकीय मान्यताओं से चिपक कर ठूँठ हो गयीं
और सपने ,
आँखों की गहराई नापते-नापते सागर की सच्चाई हो गए !
bahut hi badhiyaa ... vatvriksh ke liye bhejen rasprabha@gmail.com per tasweer parichay aur blog link ke saath

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पीड़ा सहन करना सीखना होगा।

Sushil Bakliwal ने कहा…

कम से कम क्षण भर और जी सकूँ ।
बहुत बढिया प्रस्तुति...

केवल राम ने कहा…

आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !

जीने की यही उत्कट इच्छा हमें नित नए कर्म की तरफ प्रेरित करती है

संध्या शर्मा ने कहा…

मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
जीवन क्षण भंगुर है, सार्थक, मुक्त क्षण भर जीवन ही एक सम्पूर्ण जीवन है... सारगर्भित उत्कृष्ट विचार..

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

गहन अभिव्यक्ति

डॉ टी एस दराल ने कहा…

कोशिशें , भावनाएं , सपने , विश्वास से होती हुई आत्म दाह की पीड़ा तक का सफ़र --ग़ज़ब की प्रस्तुति ।
बधाई ।

vandana gupta ने कहा…

आत्मदाह की पीडा आत्मदाह से भी भयंकर होती है …………आत्मदाह से पहले ना जाने कितनी मौत मर चुका होता है…………इस अहसास का बेहतरीन चित्रण किया है।

Amit K Sagar ने कहा…

इक़ मुक़म्मल रचना. वाह!
-
व्यस्त हूँ इन दिनों

Sunil Kumar ने कहा…

मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ
जीवन की सच्चाई को वयां करती हुई अत्यंत मार्मिक रचना , बधाई

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !

अंतर्मन की पीड़ा की बहुत गहन अभिव्यक्ति..... बेहतरीन रचना

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

बहुत सुंदर लिखा है आपने भाई ज्ञानचंद जी आपने बधाई |

मनोज कुमार ने कहा…

एक-एक शब्द से गहन चिंतन झांक रहा है।
बहुत सुंदर ज्ञान जी!

Kunwar Kusumesh ने कहा…

गहन चिंतन .
मार्मिक,भावना प्रधान, सुन्दर छंदमुक्त कविता .

दिगम्बर नासवा ने कहा…

तुम
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ ....

गहरी यंत्रणा और क्षोभ से गुजरती है आपकी रचना .... बहुत कमाल का लिखा है ..

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

क्लांत मन में उर्जा तरंगित करने वाली कविता।

मर्मज्ञ जी, बहुत प्रभावी है आपकी काव्यधर्मिता।

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

अपने नाम को सार्थक करती हुयी आपकी रचना उत्कृष्ट है.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

मर्मज्ञ जी!
नसों में रक्त का संचार द्विगुणित कर गई यह कविता. आपके शब्द सन्योजन और भाव सम्प्रेषण के तो कायल तो हैं ही हम लोग,यह उसी शृन्खला की एक ओजस्वी कड़ी है!!

करण समस्तीपुरी ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
करण समस्तीपुरी ने कहा…

वाह........ ! अभी तक आपके छंदों की जादूगिरी में बंधे थे आज मुक्तछंद में उन्मुक्त भावों की रवानगी के क्या कहने.... ! पत्थर भी अनुप्राणित हो जाएँ... शिथिल भुजदंड भी फड़क पड़ें.... कंपकंपाते कर भी सहसा गांडीव उठा ले..........! महोदय ! आप इस कविता का प्रयोजन पूरा जानें !! आभार !!!

Suman ने कहा…

bahut badhiya rachna.........

Anita ने कहा…

दिल की गहराई से दर्द को हद तक महसूस कर लिखी गई कृति के लिये बधाई !

पी.एस .भाकुनी ने कहा…

आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !......
सुंदर ! अति सुंदर ! शब्द कम पढ़ रहे हैं !

बेनामी ने कहा…

ज्ञानचंद जी,

वाह.....वाह......सुभानाल्लाह......शब्दों का इतना ज़बरदस्त चयन.....वाह....बहुत ही खूबसूरत लगी ये पोस्ट.....

निर्मला कपिला ने कहा…

मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
बस क्षण भर जीना ही तो सुलभ नही। अन्तस की पीडा कहाँ जीने देती है। सुब्दर रचना के लिये बधाई।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
--
मर्मज्ञ जी!
आपने बहुत ही सारगर्भित रचना प्रस्तुत की है!
जो मन में जीवन जीने की आसा का संचार करती है!

रचना दीक्षित ने कहा…

कोशिशें,
किसी उपग्रह से असफलता का चक्कर लगाती हुईं
मेरे ज़ख्मों की डायरी को दीमक बनकर चाट गयीं !
भावनाएं,
अनियंत्रित चुम्बकीय मान्यताओं से चिपक कर ठूँठ हो गयीं
और सपने ,
आँखों की गहराई नापते-नापते सागर की सच्चाई हो गए !

बहुत गहरे भाव, सुंदर कविता. बढिया प्रस्तुति के लिए बधाई.

कुमार राधारमण ने कहा…

एक विश्वास के टूटन से सुदृढ हो रहा दूसरा विश्वास!

सुनील गज्जाणी ने कहा…

मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ
अंतर्मन की पीड़ा की बहुत गहन अभिव्यक्ति. बेहतरीन रचना

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

भावनाएं,
अनियंत्रित चुम्बकीय मान्यताओं से चिपक कर ठूँठ हो गयीं
और सपने ,
आँखों की गहराई नापते-नापते सागर की सच्चाई हो गए !
फिर भी मेरा विश्वास
हाथों में बहारों का राजाज्ञा -पत्र लिए यूँ ही
राजमहल की सड़कों पर पसरे-पसरे
उस सोने की मेहराब को देखता रहा ,

आप वाकई मर्मज्ञ हैं भावनाओं को अभिव्यक्त करने में|

Kailash Sharma ने कहा…

तुम
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !

बहुत गहन अभिव्यक्ति..लाज़वाब रचना..आपकी लेखनी को नमन..

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

एक अलग ही भाव-संसार में ले जाती कविता..... बहुत सुन्दर...
हार्दिक बधाई।

Asha Joglekar ने कहा…

मर्मज्ञ जी बहुत गहरे पैठ कर लिखे हैं
मैं तुम्हारा राजाज्ञा-पत्र तुम्हें वापस करता हूँ,
तुम
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !

Dr Varsha Singh ने कहा…

फिर भी मेरा विश्वास
हाथों में बहारों का राजाज्ञा -पत्र लिए यूँ ही
राजमहल की सड़कों पर पसरे-पसरे
उस सोने की मेहराब को देखता रहा ,
जिसका कम से कम एक अणु
मेरे संकल्प का पुनर्जनम है ,

बहुत बढिया प्रस्तुति...बधाई ।

ZEAL ने कहा…

.

मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ ...

!wow!..Outstanding creation !

.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

"मगर आज
मैं तुम्हारा राजाज्ञा-पत्र तुम्हें वापस करता हूँ
तुम
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो
मुझे mera vah अणु लौटा दो "

बहुत सुन्दर........मर्म को स्पर्श करती ......सार्थक शब्द साधना

रंजना ने कहा…

ओह क्या बात कही है.....

असंख्य व्यथित ह्रदय के भावों को आपने शब्दों में बाँध अभिव्यक्ति दी है...

साधुवाद आपका...

अद्वितीय रचना...

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

antas ki lizlizati socho aur kashmokash se nikalti ek behtareen rachna ka srijan.

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

Hamesh ki tarah shandar.
---------
पैरों तले जमीन खिसक जाए!
क्या इससे मर्दानगी कम हो जाती है ?

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

एक मुक्कमल कविता.. बहुत बढ़िया..

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !

बहुत सुंदर लिखा है आपने क्या भाव हैं?

Rahul Singh ने कहा…

क्षणों का हिसाब लगा कर जीने का खेल, एक बार निर्तल वर्मा से सीखें.

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

अच्छी कविता आपने गलत समय पर पोस्ट कर दिया भाई मर्मग्य जी यह समय रंग गुलाल का है मेरा आशय आपकी आलोचना करना नही है होली की शुभकामनाओं के साथ आपका दोस्त

Satish Saxena ने कहा…

बहुत खूब भाई जी !! शुभकामनायें

pooja ने कहा…

bahut sunder....