ज्ञानचंद मर्मज्ञ

मेरे बारे में

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Bangalore, Karnataka, India
मैंने अपने को हमेशा देश और समाज के दर्द से जुड़ा पाया. व्यवस्था के इस बाज़ार में मजबूरियों का मोल-भाव करते कई बार उन चेहरों को देखा, जिन्हें पहचान कर मेरा विश्वास तिल-तिल कर मरता रहा. जो मैं ने अपने आसपास देखा वही दूर तक फैला दिखा. शोषण, अत्याचार, अव्यवस्था, सामजिक व नैतिक मूल्यों का पतन, धोखा और हवस.... इन्हीं संवेदनाओं ने मेरे 'कवि' को जन्म दिया और फिर प्रस्फुटित हुईं वो कवितायें,जिन्हें मैं मुक्त कंठ से जी भर गा सकता था....... !
!! श्री गणेशाय नमः !!

" शब्द साधक मंच " पर आपका स्वागत है
मेरी प्रथम काव्य कृति : मिट्टी की पलकें

रौशनी की कलम से अँधेरा न लिख
रात को रात लिख यूँ सवेरा न लिख
पढ़ चुके नफरतों के कई फलसफे
इन किताबों में अब तेरा मेरा न लिख

- ज्ञान चंद मर्मज्ञ

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रविवार, 13 फ़रवरी 2011

वेश्या







जो समाज औरत को देवी का दर्ज़ा देता है वही उस औरत को वेश्या बनने के लिए मजबूर करते समय देवी तो क्या माँ ,बहन, बेटी सभी को भूल जाता है ! किसी के कोमल सपनों को रौंद  कर उसकी मजबूरियों को नंगा करने का यह  अक्षम्य अपराध हमारे खूबसूरत समाज का  एक ऐसा दाग़ है जो हर युग में चीख़ चीख़ कर इस बात की गवाही देता रहेगा कि मनुष्य सभ्यता का नक़ाब ओढ़े एक बेहद घिनौना प्राणी है !
कुछ ऐसे ही  टूटे हुए बेजान सपनों की मजबूरियों से उपजी आँहों और सिसकियों की सौगात "वेश्या" लेकर आज आपके बीच उपस्थित हुआ हूँ ! यह एक प्रयास है उनके दुखों को बाँटने का और समाज के घिनौने चहरे से वह मुखौटा नोचकर फ़ेंकने  का जिसे पहनकर यह समाज अच्छा होने का ढोंग रचता है ! इस प्रयास में मैं कितना सफल हुआ हूँ , यह तो आप ही बता सकते हैं !




                                                                       
                       रात भर ही ये दूल्हा जियेगा 




               फूल   की  बेबसी   की  कहानी,
               फूल  से  फिर  सजाई गयी  है !
               आदमी  की वफ़ाओं की औरत,
               आज   वेश्या  बनाई   गयी  है !


                                   जिन  किताबों  की हैं दास्तानें ,
                                   उनके  पन्नों  पे कीलें गडी हैं !
                                   जिन  निगाहों में सपने उगे थे ,
                                   उनमें  मजबूरियों  की लड़ी है !


               जिस्म  के  भेड़ियों  को पता है ,
               तू  महज एक दिन की है रानी!
               रोज    राजा    बदलते    रहेंगे ,
               जब  तलक है महल में रवानी !


                                   कोई   बाबुल   नहीं  कोई  भाई ,
                                   याद   कैसे  ज़माने   को  आई!
                                   तू   है  नीलाम  की चीज  कोई,
                                   फिर  दरिंदों   ने  बोली  लगाई!


               हो  गयी  रात  अब  लाश को तुम,
               करके  श्रृंगार  दुल्हन   बना   लो!
               कल जो चुम्बन दिया था किसी ने,
               अपने  होठों  से  तुम  पोंछ डालो !


                                  कल जो आया था वो जा चुका है,
                                  भर  गया  जी तुम्हें खा चुका है !
                                  आज  नाज़ुक कली को मसलने ,
                                  एक  नया  बागबाँ  आ चुका  है !


               फ़ेंक  दो  दूर  इन  साड़ियों  को ,
               आँसुओं  से  बदन  ढाँक  डालो!
               खोल   दो  स्तनों  का  जनाज़ा ,
               चोलियों  का कफ़न फूँक डालो !  


                                  तू अभागिन दुल्हन रात भर की ,
                                  रात  भर  ही  ये दूल्हा  जियेगा !
                                  रोयेगी   बैठ  कर  फिर  अकेली,
                                  लौट  कर  ना ये  आँसू  पियेगा !


               रो  रही  है  तू  सदियों से  यूँ ही,
               जाने  कब  तक  तू रोती रहेगी !
               राक्षसों  के  कलेजे  से  लगकर,
               लाश  बनकर  तू  सोती  रहेगी !


                                                   -ज्ञानचंद मर्मज्ञ  

63 टिप्‍पणियां:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

मार्मिक चित्रण!! मौन से बड़ा कोई वक्तव्य नहीं है!!
औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया!!आज आपकी कविता उसी मेयार की!!

Sushil Bakliwal ने कहा…

कटु सत्य । वास्तव में मौन से बडा कोई वक्तव्य नहीं है ।

Kunwar Kusumesh ने कहा…

कल जो आया था वो जा चुका है
भर गया जी तुम्हें खा चुका है
आज नाज़ुक कली को मसलने
एक नया बागबाँ आ चुका है

जिस सादगी और सलासत से आप अपनी बात कह लेते हैं मर्मज्ञ जी, वो हुनर अल्लाह सबको नहीं देता. गज़ब की क़लम है आपकी.
गज़ब ढाते हैं आप गज़ब. वाह वाह वाह.
सच , नारी को वैश्यावृत्ति की तरफ धकेलने के लिए ये समाज ही ज़िम्मेदार है.
किसी का एक शेर याद आ रहा है,बड़ा मौज़ू है.. आप भी देखिये:-
उसने तो जिस्म को ही बेचा है,
एक फांके को टालने के लिए.
लोग ईमान बेच देते हैं ,
अपना मतलब निकालने के लिए.

vandana gupta ने कहा…

आपने तो सारी सच्चाई इस तरह बयान की है कि अन्दर तक हिल गये है…………इतना मार्मिक और जीवन्त चित्रण किया है कि कुछ कहने के लिये शब्द नही हैं…………निशब्द कर दिया है।

बेनामी ने कहा…

रो रही है तू सदियों से यूँ ही,
जाने कब तक तू रोती रहेगी !
राक्षसों के कलेजे से लगकर,
लाश बनकर तू सोती रहेगी !
--
बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना!

केवल राम ने कहा…

रो रही है तू सदियों से यूँ ही,
जाने कब तक तू रोती रहेगी !
राक्षसों के कलेजे से लगकर,
लाश बनकर तू सोती रहेगी !

समाज के इस घिनौनेपन को आपने इस तरह जीवंत किया है जैसे सामने कोई दृश्य घटित हो रहा हो .....इस वास्तविकता से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जिस औरत को हम देवी समझते हैं ...उस वक़्त कहाँ जाता है हमारी यह श्रद्धा भाव जब हम किसी औरत को वेश्या बनाने की राह पर ले जाते हैं ...

संध्या शर्मा ने कहा…

बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना, कटु सत्य...........

ZEAL ने कहा…

स्त्री कों उपभोग की वस्तु समझ उसका अपमान सदियों से हो रहा है । उसकी लाचारी का फायदा वेह्शी दरिन्दे उठाते ही रहेंगे ।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

मार्मिक ...संवेदनात्मक चित्रण ...... निशब्द करने वाली पंक्तियाँ रची हैं आपने ....

राज भाटिय़ा ने कहा…

मुझे समझ नही अता किसी की लाचारी का, मजबुरी का लाभ ऊथा कर लोग केसे खुश हो जाते हे, एक तरफ़ इसे पुजते हे तो दुसरी तरफ़ इसे खरीदते हे.. बहुत मार्मिक लेख लिखा आप ने धन्यवाद

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

आद. वंदना जी,
मेरी अभिव्यक्ति को चर्चा मंच पर सम्मान देने के लिए आपका आभार प्रकट करता हूँ

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

आद. सलिल जी,सुशील जी, कुसुमेश जी ,वंदना जी,शास्त्री जी,केवल राम जी,संध्या जी,मोनिका जी,दिव्या जी,और राज भाटिया जी !

आप सभी का आशीर्वाद ही मेरे भावों को शब्दों में ढलने की प्रेरणा देता है !
आप सभी का हृदय से आभार !

वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर ने कहा…

वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर said...

डॉ. डंडा लखनवी जी के दो दोहे

माननीय डॉ. डंडा लखनवी जी ने वृक्ष लगाने वाले प्रकृतिप्रेमियों को प्रोत्साहित करते हुए लिखा है-

इन्हें कारखाना कहें, अथवा लघु उद्योग।
प्राण-वायु के जनक ये, अद्भुत इनके योग॥

वृक्ष रोप करके किया, खुद पर भी उपकार।
पुण्य आगमन का खुला, एक अनूठा द्वार॥

इस अमूल्य टिप्पणी के लिये हम उनके आभारी हैं।

http://pathkesathi.blogspot.com/
http://vriksharopan.blogspot.com/

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पीड़ा बहा दी शब्दों से आपने।

पी.एस .भाकुनी ने कहा…

बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना, कटु सत्य...........

बेनामी ने कहा…

अति मार्मिक......नंगा सच......सुन्दरतम|

Arvind Jangid ने कहा…

नारी किसी उपभोग की वस्तु नहीं, ये पुरुषों की गन्दी मानसिकता ही उसे बाजार तक लेकर आई है. आभार.

डॉ टी एस दराल ने कहा…

सशक्त शब्दों में अति कटु सत्य ।
बहुत मार्मिक प्रस्तुति है ।

रंजना ने कहा…

शब्द हीन हूँ..

कुछ कहते nahi बन रहा...

कोटि कोटि नमन आपकी कलम को...

Kailash Sharma ने कहा…

हो गयी रात अब लाश को तुम,
करके श्रृंगार दुल्हन बना लो!
कल जो चुम्बन दिया था किसी ने,
अपने होठों से तुम पोंछ डालो !

बहुत ही मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...कटु सत्य जो मन को उद्वेलित कर देता है..निशब्द कर दिया आपके द्वारा चित्रित व्यथा ने..आभार

कुमार राधारमण ने कहा…

यद्यपि भाव बहुत अच्छे हैं,ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसे विषय के लिए गेय शैली अनुकूल नहीं है।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

तभी तो कहा गया है....
औरत ने जनम दिया मरदों को
मरदों ने उसे बाज़ार दिया :(

चैन सिंह शेखावत ने कहा…

बेहद प्रभावशाली रचना है आपकी..
हमारे समय की एक कटु सच्चाई को अभिव्यक्त करती पंक्तियों के लिये आपको बधाई.

पंख ने कहा…

jinti tarif ki jaye aapke lekhan ki kam hai..... :)

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

इन बेबस नारियों के लिए आपकी यह संवेदना मन को छू गई .
लेकिन सदियों से अब तक चलती आई इस स्थिति को बदला नहीं जा सका -क्यों ?

संजय भास्‍कर ने कहा…

आदरणीय ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी
नमस्कार !
बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना!
इस वास्तविकता से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जिस औरत को हम देवी समझते हैं
नारी किसी उपभोग की वस्तु नहीं, ये पुरुषों की गन्दी मानसिकता ही उसे बाजार तक लेकर आई है. आभार.

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना... और बहुत सटीक चित्रण... वेश्याओं की बेबसी और उनका शोषण ... आदमी ने क्यों औरतों को उपभोग की वस्तु बना डाला...
खैर ...आपकी रचना ने कई प्रश्न खड़े कर दिए ... सुन्दर रचना.. कटु सत्य बोलती

निर्मला कपिला ने कहा…

रो रही है तू सदियों से यूँ ही,
जाने कब तक तू रोती रहेगी !
राक्षसों के कलेजे से लगकर,
लाश बनकर तू सोती रहेगी !
बहुत मार्मिक और भावमय रचना है।
जिस औरत के दूध की पहचान है ज़िन्दगी
उसी औरत पर आज बेईमान है ज़िन्दगी
सच को ब्यां करती रचना के लिये साधूवाद।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

साहिर की "जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं..." याद आगई...बेजोड़ रचना...
नीरज

दिगम्बर नासवा ने कहा…

मार्मिक ... बहुत संवेदना है ... सच्ची संवेदना झलकती है आपकी रचना में ...

Dr Varsha Singh ने कहा…

जिन किताबों की हैं दास्तानें ,
उनके पन्नों पे कीलें गडी हैं !
जिन निगाहों में सपने उगे थे ,
उनमें मजबूरियों की लड़ी है !

मार्मिक रचना!
हर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ...

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

क्या कहूं? कटु सत्य है ये तो.

सदा ने कहा…

मार्मिक चित्रण ...।

amrendra "amar" ने कहा…

कोई बाबुल नहीं कोई भाई ,
याद कैसे ज़माने को आई!
तू है नीलाम की चीज कोई,
फिर दरिंदों ने बोली लगाई!

sabdo ke jaal se aisa bandha hai aapne ki phir ab jane ki himaat na rahi.......
bahut umda rachna
aabhar

Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) ने कहा…

हो गयी रात अब लाश को तुम,
करके श्रृंगार दुल्हन बना लो!
कल जो चुम्बन दिया था किसी ने,
अपने होठों से तुम पोंछ डालो !

bahut hi marmik aur sateek chitran... sir, aap apni koshish mein bilkul kaamyaab hue hain...

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

मर्मज्ञ जी आपकी यह कविता उस विषय को फिर से उठा रही है जो सदियों से है लेकिन आज के रचनाकार भूल गए हैं..

पूनम श्रीवास्तव ने कहा…

ek jeeta jagta prmaan jo sabhy -sammj ka aaina dikhati hai .
itni gahri abhivykti aur bahut sateek avam marmik prastuti ,jo dilko bahut kuchh sochne par majbur karti hai.
kash! aap ki itni gahari soch aap ke dil ke dard ka agar das partishat bhisafal ho jaaye to yah vastav me apne aap me aap dwara bahut badi uplabhdhi hogi.ishwar se yahi mangal kamana karti hun.
bahut hi prabhav-shali avam man ki gaharaiyo tak chhoo gai aapki bhav purn prastuti.
poonam

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

कविता एक दिशा में सोचने मजबूर करती है ।

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

कटु सत्य ।
बहुत मार्मिक प्रस्तुति है ।

shikha varshney ने कहा…

मार्मिक चित्रण ..सच में शब्द नहीं है कुछ और कहने को.

saroj ने कहा…

मार्मिक और जीवन्त चित्रण ....ज्ञान चंद जी बधाई

रचना दीक्षित ने कहा…

रही है तू सदियों से यूँ ही,
जाने कब तक तू रोती रहेगी !
राक्षसों के कलेजे से लगकर,
लाश बनकर तू सोती रहेगी !

बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना, कटु सत्य.निशब्द कर दिया है।

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

....

सहज साहित्य ने कहा…

मर्मज्ञ जी आपने शोषित नारी की पीड़ा को शब्दों में बाँधकर नई ऊंचाई दी है ।

लोकेन्द्र सिंह ने कहा…

कटु सत्य को बखूबी कविता में बांधा....

Rahul Singh ने कहा…

मन में अवसाद भर देने वाली रचना.

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

kavita ke madhym se aapne ek vicharniy prasn uthaya hai |nice dost

आचार्य परशुराम राय ने कहा…

अच्छी रचना है। आभार।

Suman ने कहा…

samaj ki sachai bayan karti rachna.
bahut marmik chitran kiya hai aapne......

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

samaj ke fatehaal hone ka saboot aapne badi tareeke se dikha diya...:(
pata nahi kab ye badlega....ummid kam hai!!

करण समस्तीपुरी ने कहा…

कामुक वासना ही थी क्या वह गिरा तुम्हारी !
एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी !!

नर के बांटे क्या नारी की नग्न देह ही आयी !
और नहीं कोई क्या उसका पिता-पुत्र या भाई !!

प्रसंग भिन्न है किन्तु राष्ट्रकवि गुप्त की इन पंक्तियों की संवेदना बरबस याद आ गयी ! हमारे वांगमय में कहा गाया है, 'सत्यम ब्रूयात ! प्रियं ब्रूयात !! न ब्रूयात असत्यामाप्रियम !!! आपने सत्य भी बोला है, कर्णप्रिय भी बोला है.... असत्य तो किंचित नहीं है, प्रथा अप्रिय है, तो उसे बदलना होगा. एक कवि का अपने राष्ट्र और समाज के प्रति दायित्व को आप अपनी कलम से बखूबी जी रहे हैं. धन्यवाद !!

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

मर्मस्पर्शी रचना ... समाज के कटु सत्य को नंगा करती बेहतरीन कविता !

Asha Joglekar ने कहा…

सत्य किंतु कटु ।

Amrita Tanmay ने कहा…

भगवान करे आपकी सुन्दर रचना व मार्मिक चित्रण का प्रभाव उनपर परे जो नारी की ऐसी स्थिति के लिए कारण बनते हैं ...तब ही कुछ चमत्कार हो सकता है

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

....मार्मिक, हृदयस्पर्शी पंक्तियां हैं। अच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकारें।

कृपया, इसी विषय पर मेरा लेख (कुछ प्रश्नमय) http://sharadakshara.blogspot.com/ में देखें। शायद आपको रुचिकर लगे।

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

मन को बड़े गहरे तक छू कर झिंझोड़ डाला आपने...।हिन्दी साहित्य में औरत पर बहुत कविताएँ लिखी गई, पर औरत के इस ऐसे बेबस पहलू को शब्दों में पिरोने की शायद ही किसी ने सोची हो...।
काश ! औरत को इस रूप में धकेलने वालों का ज़मीर जाग पाता...।

राजेश सिंह ने कहा…

बहुत खूब. नारी का महत्‍व सिर्फ जेण्‍डर इशू तक सीमित न रहे.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

nari durdasha ka bhavpoorn marmik chitran hai aapki racgna me...
bahut sarahniy....

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

हृदय को आहत करने वाली पंक्तियां हैं।
आखिर कब बदलेगा समाज....कौन बदलेगा?

ज्योति सिंह ने कहा…

रो रही है तू सदियों से यूँ ही,
जाने कब तक तू रोती रहेगी !
राक्षसों के कलेजे से लगकर,
लाश बनकर तू सोती रहेगी !
ati uttam ,aapne unki durdasha ko is baariki se bayan kiya hai ki kya kahoon sujh nahi raha ,man bheeg gaya .mahila divas ke liye uttam kriti .dhero badhai ,prayas safal raha .

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

तू अभागिन दुल्हन रात भर की ,

रात भर ही ये दूल्हा जियेगा !
रोयेगी बैठ कर फिर अकेली,
लौट कर ना ये आँसू पियेगा !

मैं समझ नहीं पा रही हूं कि किन शब्दों में प्रशंसा करूं ,बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति ,मन को उद्वेलित करने वाली रचना
आप अपने प्रयास में सफल हैं

अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Roy ने कहा…

कल जो आया था वो जा चुका है,
भर गया जी तुम्हें खा चुका है !
आज नाज़ुक कली को मसलने ,
एक नया बागबाँ आ चुका है !
उपर्युक्त पंक्तियों में बागबां शब्द का उपयोग उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि वह तो हमेशा ही बाग की हिफाज़त करता है. कविता अच्छी है. आपका लेखन पाठकों पर सदा प्रभाव छोड़ता है.

JAGDISH BALI ने कहा…

U have touched the very filthy aspect of so called modern human civilisation.