ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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Bangalore, Karnataka, India
मैंने अपने को हमेशा देश और समाज के दर्द से जुड़ा पाया. व्यवस्था के इस बाज़ार में मजबूरियों का मोल-भाव करते कई बार उन चेहरों को देखा, जिन्हें पहचान कर मेरा विश्वास तिल-तिल कर मरता रहा. जो मैं ने अपने आसपास देखा वही दूर तक फैला दिखा. शोषण, अत्याचार, अव्यवस्था, सामजिक व नैतिक मूल्यों का पतन, धोखा और हवस.... इन्हीं संवेदनाओं ने मेरे 'कवि' को जन्म दिया और फिर प्रस्फुटित हुईं वो कवितायें,जिन्हें मैं मुक्त कंठ से जी भर गा सकता था....... !
!! श्री गणेशाय नमः !!

" शब्द साधक मंच " पर आपका स्वागत है
मेरी प्रथम काव्य कृति : मिट्टी की पलकें

रौशनी की कलम से अँधेरा न लिख
रात को रात लिख यूँ सवेरा न लिख
पढ़ चुके नफरतों के कई फलसफे
इन किताबों में अब तेरा मेरा न लिख

- ज्ञान चंद मर्मज्ञ

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सोमवार, 2 मई 2011

देश का यूँ पतन नहीं होता

                                                                 
     
                                           देश   का   यूँ   पतन   नहीं   होता 


                         एक    छोटा    सुराख़    है    बाकी ,
                         देख  लेना  कोई  ग़म आ  न जाए !
                         अँगुलियों  के बढ़ गए नाख़ून फिर 
                         ये उदासी इस शहर को खा न जाए!

               लुट  रही  है   सिया  जंगलों  में,
               कर  सका  ना  कोई  राम रक्षा ! 
               अब  ना लपटों में सीता जलेगी,
               अब  ना  देगी  कोई भी परीक्षा !

                         अब कभी हँसने का मन नहीं होता 
                         क्या  करें  कुछ जतन  नहीं  होता !
                         गर   लुटेरों   से   वफ़ा  ना   करते,
                         देश   का   यूँ   पतन   नहीं   होता !

               अपने  पैरों  के छालों से डरकर,
               रास्ते   मखमली   न   बनाना !
               बेबसी  के  शहर  में  कभी  भी ,
               हादसों   की  गली   न  बनाना ! 

                                                -ज्ञानचंद मर्मज्ञ 

45 टिप्‍पणियां:

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

अपने पैरों के छालों से डरकर,
रास्ते मखमली न बनाना !

बहुत सही कहा आपने ... बेहतरीन रचना !

vandana gupta ने कहा…

आपकी रचनायें ।झकझोर जाती हैं…………बेहद उम्दा रचना

Satish Saxena ने कहा…

अब कभी हँसने का मन नहीं होता
क्या करें कुछ जतन नहीं होता !
गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !


बहुत खूब मर्मज्ञ भाई , एक सामयिक और अनुकरणीय रचना ! आभार आपका !

डॉ टी एस दराल ने कहा…

गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !

जहाँ आँख खुले , वहीँ सवेरा है ।
अभी भी संभल जाएँ तो अच्छा है ।
बढ़िया रचना ।

Sunil Kumar ने कहा…

देश के पतन का सही कारण ढूंढ़ लिया आपने, बधाई

G.N.SHAW ने कहा…

दर्दनीय कविता ....सोंचने को बाध्य करती है !

संध्या शर्मा ने कहा…

गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !

सही कहा आपने "देश का यूँ पतन नहीं होता"
सटीक और प्रासंगिक प्रस्तुति ...

कविता रावत ने कहा…

अब कभी हँसने का मन नहीं होता
क्या करें कुछ जतन नहीं होता !
गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !
बहुत सही कहा आपने ... …
बेहद उम्दा रचना

विशाल ने कहा…

बहुत खूब.

एक छोटा सुराख़ है बाकी ,
देख लेना कोई ग़म आ न जाए !
अँगुलियों के बढ़ गए नाख़ून फिर
ये उदासी इस शहर को खा न जाए!


बहुत ही खूब.

kshama ने कहा…

लुट रही है सिया जंगलों में,
कर सका ना कोई राम रक्षा !
अब ना लपटों में सीता जलेगी,
अब ना देगी कोई भी परीक्षा !

अब कभी हँसने का मन नहीं होता
क्या करें कुछ जतन नहीं होता !
गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !
Kya gazab baat kahee hai!Behad sashakt rachana!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बेबसी भरे हादसे ही दिखते हैं।

Dr Varsha Singh ने कहा…

अपने पैरों के छालों से डरकर,
रास्ते मखमली न बनाना !
बेबसी के शहर में कभी भी ,
हादसों की गली न बनाना !

कर्तव्यों के प्रति सचेत करती पंक्तियाँ......
इस कविता में भी आपका निराला अंदाज झलक रहा है। हार्दिक धन्यवाद एवं आभार।

Patali-The-Village ने कहा…

सटीक और प्रासंगिक प्रस्तुति|धन्यवाद|

ZEAL ने कहा…

लुट रही है सिया जंगलों में,
कर सका ना कोई राम रक्षा !
अब ना लपटों में सीता जलेगी,
अब ना देगी कोई भी परीक्षा ....

Very appealing lines !

.

निर्मला कपिला ने कहा…

गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !
बिलकुल सही कहा बहुत अच्छी रचना। बधाई।

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

अपने पैरों के छालों से डरकर,
रास्ते मखमली न बनाना !

पते की बात

सुज्ञ ने कहा…

सार्थक रचना, मर्मज्ञ जी, बेहद अच्छी अभिव्यक्ति!!


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सुज्ञ: ईश्वर सबके अपने अपने रहने दो

Anita ने कहा…

कभी-कभी लुटेरों से वफ़ा आदतन की जाती है कभी लोभ, कभी मजबूरी लेकिन कीमत हर हाल में चुकानी ही पड़ती है, सोचने पर विवश करती रचना !

Kunwar Kusumesh ने कहा…

गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !

बहुत सटीक स्पष्ट और सही बात कही है आपने.
आपकी सोंच और क़लम का जवाब नहीं,मर्मज्ञ जी.
वाह.

Unknown ने कहा…

बहुत सुन्दर. शानदार

दुनाली पर
लादेन की मौत और सियासत पर तीखा-तड़का

Sushil Bakliwal ने कहा…

गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !
सटीक सोच, उत्तम अभिव्यक्ति.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

आपकी कवितायेँ इतना ओज समेटे होती हैं कि नसों में लहू दौड़ने लगता है और दिमाग सोचने पर विवश हो जाता है.. जीवन का जीवन से परिचय कराती कविता..

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

अब कभी हँसने का मन नहीं होता
क्या करें कुछ जतन नहीं होता !
गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !


एकदम सटीक सच्ची और अच्छी पंक्तियाँ..... बहुत बढ़िया

बेनामी ने कहा…

सुभानाल्लाह..........हैट्स ऑफ इस पोस्ट के लिए ..........

संजय भास्‍कर ने कहा…

आदरणीय ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी
नमस्कार !
गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !
बिलकुल सही कहा बहुत अच्छी रचना। बधाई।

संजय भास्‍कर ने कहा…

कई दिनों व्यस्त होने के कारण  ब्लॉग पर नहीं आ सका
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

Arvind Jangid ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना है आपकी विशेषकर

गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !

आभार.

rashmi ravija ने कहा…

अब कभी हँसने का मन नहीं होता
क्या करें कुछ जतन नहीं होता !
गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !

सोंचने को बाध्य करती है....बेहद उम्दा रचना

मदन शर्मा ने कहा…

बहुत बहुत सुन्दर सार्थक ओजपूर्ण इस रचना के लिए आपका साधुवाद !!

मदन शर्मा ने कहा…

गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !
सोंचने को बाध्य करती है !सटीक और प्रासंगिक प्रस्तुति|धन्यवाद|

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

'गर लुटेरों से वफ़ा ना करते

देश का यूँ पतन नहीं होता '

.................यथार्थ का भावपूर्ण चित्रण

..............सभी मुक्तक अर्थपूर्ण

निर्मला कपिला ने कहा…

अपने पैरों के छालों से डरकर,
रास्ते मखमली न बनाना !
बेबसी के शहर में कभी भी ,
हादसों की गली न बनाना !
बहुत अच्छे भाव हैं रचना के। धन्यवाद।

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

अब कभी हँसने का मन नहीं होता
क्या करें कुछ जतन नहीं होता !
गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !

वाह, मर्मज्ञ जी, बहुत खूब।
इस प्रभावशाली अभिव्यक्ति के लिए आभार।

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

आद. महेंद्र वर्मा जी की मेल द्वारा प्राप्त टिप्पणी :


अब कभी हँसने का मन नहीं होता
क्या करें कुछ जतन नहीं होता !
गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता !

वाह, मर्मज्ञ जी, बहुत खूब।
इस प्रभावशाली अभिव्यक्ति के लिए आभार।



mahendra verma द्वारा मर्मज्ञ: "शब्द साधक मंच" के लिए १२ मई २०११ ७:५४ अपराह्न को पोस्ट किया गया

ZEAL ने कहा…

अब कभी हँसने का मन नहीं होता
क्या करें कुछ जतन नहीं होता !
गर लुटेरों से वफ़ा ना करते,
देश का यूँ पतन नहीं होता ....

बहुत सच्ची बात लिखी है ज्ञान जी । आज भी यदि लुटेरों को पहचान सकें तो भी इस पतन से बचा जा सकता है।

.

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

असरदार रचना
बधाई

आचार्य परशुराम राय ने कहा…

भावों को रचना में बड़े कौशल से पिरोया गया है। साधुवाद।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

झकझोर देने वाली रचना ..

virendra sharma ने कहा…

गर लुटेरों से वफा न करते ,देश का यूं पतन न होता ...
सुन्दर रचना पढवाई आपने .शुक्रिया !

Satish Saxena ने कहा…

प्रभावशाली रचना, सही चिंता है आपकी !आभार !

रचना दीक्षित ने कहा…

एक छोटा सुराख़ है बाकी ,
देख लेना कोई ग़म आ न जाए !
अँगुलियों के बढ़ गए नाख़ून फिर
ये उदासी इस शहर को खा न जाए!

बहुत खूब मर्मज्ञ जी आपने तो अंदर तक हिला दिया. बहुत खूबसूरत शेर और सुंदर गज़ल. बहुत ही सामयिक रचना, धन्यबाद.

Rajeev Panchhi ने कहा…

Very nice and meaningful. I wish you all the best.

हमारीवाणी ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Bharat Bhushan ने कहा…

अँगुलियों के बढ़ गए नाख़ून फिर
ये उदासी इस शहर को खा न जाए!

बहुत सृजनात्मक पंक्तियाँ हैं.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत मखमली सी सुन्दर और भावप्रणव रचना!