मिट्टी की पलकें
मेरी आँखों को
एकटक घूरती अनगिनत आँखें
हर आँख में धंसी
हज़ार हज़ार आँखें
और उन पर ओढ़ाई गईं
पुरानी पुरानी
मिट्टी की बनी पलकें !
ये पलकें,
लगता है-
खुशियों के बह जाने से बनी हैं ,
किसी महल के ढह जाने से बनी हैं !
चुपचाप
मौन-शांत निरीह सी
सदियों से बेजान टंगी,
खुली की खुली ये पलकें
अपनी बुझी आँखों से
न जाने कब से घूरे जा रही हैं
मेरी उन पलकों को
जो हिल रही हैं
छूने की कोशिश में
उन सपनों की खुशियों को
जो
आँखों की झीलों में खिल रही हैं !
उनमें भी
मेरी पलकों की तरह हिलने की गहरी प्यास है
तभी तो
ये सारी की सारी मिट्टी की पलकें
इस कदर उदास हैं !
लगता है-
आज आँसुओं को बहना ही पड़ेगा,
मुखौटा हटाकर
इनसे कहना ही पड़ेगा -
लो नोच लो मेरे चहरे को
और देख लो मेरी वो आँखें
जो बह गयी हैं खण्डहर बनकर
आंसुओं में ढल के!
मेरे पास भी हैं
तुम्हारी ही तरह
मिट्टी की बनी मेरी असली पलकें !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
41 टिप्पणियां:
आदरणीय ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी
नमस्कार !
मेरी उन पलकों को जो हिल रही हैं छूने की कोशिश मेंउन सपनों की खुशियों को जो आँखों की झीलों में खिल रही हैं !उनमें भी मेरी पलकों की तरह हिलने की गहरी प्यास है तभी तो ये सारी की सारी मिटटी की पलकें इस कदर उदास हैं
...खूब लिखा आपने
जीवन के कटु सत्य को जिससे हम बच कर निकल जाना चाहते हैं बहुत ही मार्मिकता से उकेरा है... शुभकामनायें
आपने बहुत सुन्दर शब्दों में अपनी बात कही है। शुभकामनायें।
अच्छा लिखा है. बधाई
समय हो तो मेरा ब्लॉग भी देखें
महिलाओं के बारे में कुछ और ‘महान’ कथन
लगता है-
खुशियों के बह जाने से बनी हैं ,
किसी महल के ढह जाने से बनी हैं !
bahut jaandaar abhivyakti ...
मिट्टी की पलकों के माध्यम से जीवन की कटु सच्चाई का यथार्थ चित्रण!
ज्ञानचंद जी,
सुभानाल्लाह......आप का लेखा शानदार है......कुछ अलग सा लगता है आपको पढ़कर.....शानदार..... प्रशंसनीय
ज्ञनचंद जी आप उन विरल कवियों में से हैं जिनकी कविता एक अलग राह अपनाने को प्रतिश्रुत दिखती हैं। इस कविता के ज़रिए आपने एक बार फिर अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों को समेट बाज़ारवादी आहटों और मनुष्य विरोधी ताकतों के विरुद्ध एक बड़ा प्रत्याख्यान रचा है जो अपनी उदासीनताओं के साथ सोते संसार की नींद में खलल डालता है।
कितना कुछ कहती पलकें।
ये सारी की सारी मिट्टी की पलकें
इस कदर उदास हैं !
लगता है-
आज आँसुओं को बहना ही पड़ेगा,
मुखौटा हटाकर
इनसे कहना ही पड़ेगा -
वाह... कितना सशक्त प्रस्तुतीकरण... मिट्टी की पलकों के माध्यम से जीवन के कटु सत्य का यथार्थ चित्रण..
लगता है-
खुशियों के बह जाने से बनी हैं ,
किसी महल के ढह जाने से बनी हैं !
पूरा जीवन दर्शन समाहित कर दिया आपने आपका आभार
ये तो आंख की किरकिरी हो गई :)
एक कडवे सच को अपने में समेटे , एक प्रभावशाली रचना ।
जो बह गयी हैं खण्डहर बनकर
आंसुओं में ढल के!
मेरे पास भी हैं
तुम्हारी ही तरह
मिट्टी की बनी मेरी असली पलकें !
बहुत सुंदर......प्रभावित करते भाव....
मेरे पास भी हैं
तुम्हारी ही तरह
मिट्टी की बनी मेरी असली पलकें !....
संवेदना से भरी मार्मिक रचना...शुभकामनायें.
नहीं समझ पाया।
इनसे कहना ही पड़ेगा -
लो नोच लो मेरे चहरे को
और देख लो मेरी वो आँखें
जो बह गयी हैं खण्डहर बनकर
आंसुओं में ढल के!
मर्मस्पर्शी अर्थों को समेटे हुए अच्छी लगी , बधाई
आँखों की झीलों में खिल रही हैं !
उनमें भी
मेरी पलकों की तरह हिलने की गहरी प्यास है ...
बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना !
शुभकामनायें !
सरल शब्दों के माध्यम से मार्मिक भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति,जो कचोटती है मन को.
आपका मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा'पर आने के लिए बहुत बहुत आभार.मार्गदर्शन करते रहिएगा.
मर्मज्ञ जी!
आपकी कविता में एक रवानी दिखती है और वह इस कविता में भी है.. आपने अनछुए बिम्बों की सहायता से एक नंगा सच दिखाया है!!
लगता है-
आज आँसुओं को बहना ही पड़ेगा,
मुखौटा हटाकर
इनसे कहना ही पड़ेगा -
लो नोच लो मेरे चहरे को
और देख लो मेरी वो आँखें
जो बह गयी हैं खण्डहर बनकर
गहन चिंतन के साथ मार्मिक और दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाली अभिव्यक्ति.
खूब लिखते हैं मर्मज्ञ जी आप.
शशक्त रचना के लिए बधाई.
मिट्टी की पलकें ..bhut hi khubsurat title hai aur utni khubsurat panktiya hai.. bhut hi acchi...
मिट्टी की बनी असली पलकों से प्रस्तुत जीवन का कटु यथार्थ.
ये पलकें,
लगता है-
खुशियों के बह जाने से बनी हैं ,
किसी महल के ढह जाने से बनी हैं ...
गहन विश्लेष्णात्मक अभिव्यक्ति ।
.
sashakt bhavo kee shandar abhivykti.......
भाई मर्मग्य जी सुंदर कविता के लिए बधाई और शुभकामनाएं |
लगता है-
आज आँसुओं को बहना ही पड़ेगा,
मुखौटा हटाकर
इनसे कहना ही पड़ेगा -
लो नोच लो मेरे चहरे को
और देख लो मेरी वो आँखें
जो बह गयी हैं खण्डहर बनकर
आंसुओं में ढल के!
मेरे पास भी हैं
तुम्हारी ही तरह
मिट्टी की बनी मेरी असली पलकें !
जबरदस्त ।
अच्छी कविता। साधुवाद।
मेरी आँखों को
एकटक घूरती अनगिनत आँखें
हर आँख में धंसी
हज़ार हज़ार आँखें
और उन पर ओढ़ाई गईं
पुरानी पुरानी
मिट्टी की बनी पलकें !bahut hi sundar .
मेरी आँखों को
एकटक घूरती अनगिनत आँखें
हर आँख में धंसी
हज़ार हज़ार आँखें
और उन पर ओढ़ाई गईं
पुरानी पुरानी
मिट्टी की बनी पलकें !bahut hi sundar .
बहुत खूब मर्मज्ञ जी !
शुभकामनायें आपको !
बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना|
नवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएँ|
दिन मैं सूरज गायब हो सकता है
रोशनी नही
दिल टू सटकता है
दोस्ती नही
आप टिप्पणी करना भूल सकते हो
हम नही
हम से टॉस कोई भी जीत सकता है
पर मैच नही
चक दे इंडिया हम ही जीत गए
भारत के विश्व चैम्पियन बनने पर आप सबको ढेरों बधाइयाँ और आपको एवं आपके परिवार को हिंदी नया साल(नवसंवत्सर२०६८ )की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!
आपका स्वागत है
"गौ ह्त्या के चंद कारण और हमारे जीवन में भूमिका!"
और
121 करोड़ हिंदुस्तानियों का सपना पूरा हो गया
आपके सुझाव और संदेश जरुर दे!
वाह सुंदर रचना.
आज के हालात को देख कर ऐसा होना स्वाभाविक ही है ...
गहरा चिंतन है इस रचना में ..
नव-संवत्सर और विश्व-कप दोनो की हार्दिक बधाई .
लो नोच लो मेरे चहरे को
और देख लो मेरी वो आँखें
जो बह गयी हैं खण्डहर बनकर
आंसुओं में ढल के!
वाह, हृदयस्पर्शी कविता, जो पाठक के मन के साथ तादात्म्य स्थापित कर सकने में सक्षम हैं।
मर्मज्ञ जी ,
ह्रदय के गहनतम भाव उजागर हुए हैं ,,,,गहरी संवेदना की रचना
बहुत असरदार ढंग से आपने जीवन के सत्य को उकेरा है ... बधाई !
I loved da poem.. though i dnt claim dat i cud understand it fully but definitely its a brilliant piece of work... :)
...मेरे पास भी हैं
तुम्हारी ही तरह
मिट्टी की बनी मेरी असली पलकें !
--
वाह!
क्या बात है!
बहुत सुन्दर गद्यगीत लिखा है आपने!
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