ग़ज़ल
किस डगर हम इधर आ गए
उलझनों के शहर आ गए
अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए
क़त्ल की रात ढलने को थी
भीड़ को हम नज़र आ गए
लूट लेते हैं ख़ुद मंज़िलें
कौन से राहबर आ गए
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ लगे
बस उधर से इधर आ गए
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
- ज्ञान चंद मर्मज्ञ
61 टिप्पणियां:
आज तो शहरयार साहब का कलाम याद करा दियाः
सीने में जलन,आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है,
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूँ है!
आपकी ग़ज़ल इसी वेदना को रेखांकित करती है!!
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ लगे
बस उधर से इधर आ गए
बहुत खूब .... यूं ही लगता है यह सफ़र
मर्मज्ञ जी!
सीधे सादे शब्दों में
बहुत ही सशक्त रचना पेश की है आपने!
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ लगे
बस उधर से इधर आ गए
Kya gazab likha hai...hameshaki tarah!
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ लगे
बस उधर से इधर आ गए
सच कहा …………
ऐसा लगने लगे तो क्या बात हो
शायद तब ज़िन्दगी से मुलाकात हो
बहुत अच्छे.
अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए
बहुत खूब ..बढ़िया गज़ल ..
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ लगे
बस उधर से इधर आ गए
बहुत खूब... चलती रहे जिन्दगी.
bhut khoob....
सच में, लगता है बस जिन्दगी भटके जा रही है।
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ लगे
बस उधर से इधर आ गए
बहुत खूब लिखा आपने......बधाई .....आभार मेरे ब्लॉग पर आये ,और स्नेह पाती रहूँ ....
आदरणीय मर्मज्ञ जी!
नमस्कार !
..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
बेहतरीन ग़ज़ल.......दिल से मुबारकबाद|
लूट लेते हैं ख़ुद मंज़िलें
कौन से राहबर आ गए
ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी .... बेहतरीन शब्द , बेहतरीन भाव , बेहतरीन सन्देश ... लाजवाव रचना ...
एक लाजवाब गजल ! 'बस उधर से इधर आ गये ' में बहुत गहरी बात कह दी है !
ज्ञानचंद जी,
बहुत ही खुबसूरत ग़ज़ल है आपकी.....हर शेर उम्दा.....ये शेर सबसे अच्छा लगा-
क़त्ल की रात ढलने को थी
भीड़ को हम नज़र आ गए
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ लगे
बस उधर से इधर आ गए
चंद अलफ़ाज़ में हक़ीक़त-ए-जिंदगी बयाँ कर दी है. एक शे'र मैं भी कह दूँ,
"मांझी तेरे नाव के तलबगार बहुत हैं,
कुछ इस पार तो उस पार बहुत है !
जिस शहर खोली है तू ने शीशे की दूकान ,
उस शहर में पत्थर के खरीदार बहूत हैं !!
क़त्ल की रात ढलने को थी
भीड़ को हम नज़र आ गए..
वाह ... मर्मज्ञ जी. खूब.,,,,,,,,,,
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ लगे
बस उधर से इधर आ गए
अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए
मर्मग्य जी लाजवाब गज़ल है हर शेर ज़िन्दगी के सच को ब्याँ करता हुया। बधाई।
बेहतरीन.........बस उधर से इधर आ गए..आभार.
हर नज़्म बहुत ही भाव पूर्ण और सुंदर..... बेहतरीन प्रस्तुति.
क़त्ल की रात ढलने को थी
भीड़ को हम नज़र आ गए
बड़ी सादगी और सलाहियत से अपनी बात शेर में कह दी आपने.
हर शेर लाजवाब है.
आपकी हर कविता आपके दिल से निकलती है और दूसरे के दिल के अन्दर सीधे पहुँचती है.
वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह.
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ लगे
बस उधर से इधर आ गए
bahut badhiya ,kuchh yoon hi hai jindagi ka safar .
अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए
दिल की गहराइयों से निकली एक बेहतरीन रचना..
क़त्ल की रात ढलने को थी
भीड़ को हम नज़र आ गए
क्या बात है .....
बहुत खूब ....!!
यथार्थ अभिव्यक्ति है.
मिट्टी की पलकें पर बधाई॥
लूट लेते हैं ख़ुद मंज़िलें
कौन से राहबर आ गए
अब इन रहबरों की शिनाख्त कौन करें.. सभी को मालूम तो है :)
sundar gazal bahut bahut badhai
sundar gazal bahut bahut badhai
sundar gazal bahut bahut badhai
sundar gazal bahut bahut badhai
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अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए
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ऐसा ही होता है ..
हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी ,
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी।
.
हर शेर मन को छूता हुआ...
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल...
पढवाने के लिए आभार...
अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए
बहुत ख़ूब लिखा है आपने ।
उम्दा ग़ज़ल। बधाई।
एक संवेदनशील दिल की व्यथा है यह रचना ! हार्दिक शुभकामनायें मर्मज्ञ जी !
bahut sunder gajal hai........
वाह! वाह!
'"अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए''
सारगर्भित गज़ल की प्रस्तुति हेतु बधाई!
सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ लगे
बस उधर से इधर आ गए!!
वेदना को प्रकट करती,सशक्त रचना!!
अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए
क्या बात कही है सशक्त रचना.
अजनबी शहर के अजनबी रास्ते ...
कहाँ चले थे किधर आ गए ..
क़त्ल की रात ढलने को थी की भीड़ को हम नजर आ गए ...
उम्दा शेर !
बहुत अच्छी कविता बहुत सुन्दर विचार है। आपके धन्यवाद
हमारे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
मालीगांव
साया
लक्ष्य
किस डगर हम इधर आ गए
उलझनों के शहर आ गए
ठीक ही लिखा है -
ज़िन्दगी उलझनों से भरा शहर ही है -
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ लगे
बस उधर से इधर आ गए
एक अच्छी ग़ज़ल के
अच्छे शेरों में
यह शेर बहुत अच्छा लगा
आदमी मुसाफिर है...
क्या बात.....क्या बात.....क्या बात.....
"अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए"
बेहद सुन्दर.
बहुत सुंदर लिखा है, ये ही आज की जिन्दगी की हकीकत है.
बहुत ही बढ़िया है पूरी ग़ज़ल.
किस शेर को छोडूं और किस की दाद दूं.
आप की कलम को सलाम.
अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए...
लाज़वाब गज़ल..हरेक शेर दिल को छू जाता है..
अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए ...
बहुत खूब ज्ञान जी .. छोटी बहार में इतने सरल शब्दों में कमाल की ग़ज़ल लिख दी है आपने ... सुभान अल्ला ... क्या कमाल किया है ..
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ लगे
बस उधर से इधर आ गए
अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए ...
बहुत रचना रचना!!बधाई
अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए ..
शेर अच्छा लगा, बधाई
जब भी आपकी ग़ज़ल या रचना पढ़ती हूँ, सीखने की कोशिश करती हूँ...
बहुत सुन्दर ग़ज़ल... धन्यवाद...
अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए
उम्दा शेर....सुन्दर ग़ज़ल
अजनबी है यहाँ हर कोई,
हम समझते थे घर आ गए।
वाह, मर्मज्ञ जी, क्या खूब लिखा है।
कभी-कभी घर के लोग भी अजनबी लगने लगते हैं।
यथार्थपरक ग़ज़ल।
क़त्ल की रात ढलने को थी
भीड़ को हम नज़र आ गए
बहुत ही खुबसूरत ग़ज़ल है
खुबसूरत ग़ज़ल. बहुत खूब.
अजनबी है यहाँ हर कोई
हम समझते थे घर आ गए
दिल को छूने वाली खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.
आप सभी सुधी पाठकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ !
आपके विचार मेरी उर्जा बनकर मुझे प्रोत्साहित करते हैं
हर शेर उम्दा..सशक्त रचना
साधारण शब्दों में बड़ी असाधारण बात कह जाते हैं आप...।
मेरी बधाई...
प्रियंका
मर्मज्ञ जी,
आपकी यह कविता और इसकी शब्द योजना बड़ी ही प्यारी लगी। साधुवाद।
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