ज्ञानचंद मर्मज्ञ

मेरे बारे में

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Bangalore, Karnataka, India
मैंने अपने को हमेशा देश और समाज के दर्द से जुड़ा पाया. व्यवस्था के इस बाज़ार में मजबूरियों का मोल-भाव करते कई बार उन चेहरों को देखा, जिन्हें पहचान कर मेरा विश्वास तिल-तिल कर मरता रहा. जो मैं ने अपने आसपास देखा वही दूर तक फैला दिखा. शोषण, अत्याचार, अव्यवस्था, सामजिक व नैतिक मूल्यों का पतन, धोखा और हवस.... इन्हीं संवेदनाओं ने मेरे 'कवि' को जन्म दिया और फिर प्रस्फुटित हुईं वो कवितायें,जिन्हें मैं मुक्त कंठ से जी भर गा सकता था....... !
!! श्री गणेशाय नमः !!

" शब्द साधक मंच " पर आपका स्वागत है
मेरी प्रथम काव्य कृति : मिट्टी की पलकें

रौशनी की कलम से अँधेरा न लिख
रात को रात लिख यूँ सवेरा न लिख
पढ़ चुके नफरतों के कई फलसफे
इन किताबों में अब तेरा मेरा न लिख

- ज्ञान चंद मर्मज्ञ

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गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

इस नयन से उस नयन तक,
इस धरा  से  उस गगन तक,
भोर  की  उजली किरण तक,
दीप  तुम  जलते  ही  रहना !

दीपावली की अनन्त शुभकामनायें !
                            -ज्ञानचंद मर्मज्ञ 

सोमवार, 15 सितंबर 2014

                                        हिंदी-दिवस की शुभकामनायें 


                                     जिसकी  आँखों  में  लाचार  सपने,
                                     जिसकी  वाणी में अमृत-कलश है,
                                     उसको  देखा  तो  फिर याद आया,
                                     देश   में   आज   हिंदी-दिवस   है !
                                                                     -ज्ञानचंद मर्मज्ञ 

बुधवार, 3 सितंबर 2014

                               जाने    कैसा   कमाल  करता  है ,
                               एक  पल  में  निहाल  करता   है !
                               रंग    माटी   का  चाहे  जैसा   हो ,
                               फिर भी फूलों को लाल करता है !!
                                                            -ज्ञानचंद मर्मज्ञ 

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

"मुझे रावण मत कहो"




मुझे रावण मत कहो


हमारी संस्कृति अनेक अलौकिक गाथाओं और परम्पराओ से भरी पड़ी है ! जिसे निष्ठां ,विश्वास और समर्पण की त्रिवेणी सदियों से सींचती आ रही है! इन परम्पराओं ने सदा मानवता के संरक्षण और सत्य के निरूपण में अपनी महती भूमिका निभाई है ! ये परम्पराएँ भारतीय जीवन की अमूल्य धरोहर हैं ! एक तरफ जहाँ ये हमारे जीवन में सजग चेतना को निरुपित करती हैं वहीँ दूसरी तरफ भारतीयता को समृद्ध करते हुए हमारे चरित्र को निखारकर जीवन में उच्च आदर्श स्थापित करने की प्रेरणा भी देती हैं ! 

त्रेता में भगवान् श्री राम ने ऐसी ही कई ऊँचे आदर्श और मर्यादा-पूरित परम्पराओं को स्थापित किया और अत्याचारी रावण का संहार कर इस तथ्य को निरुपित किया कि बुराई पर हमेशा अच्छाई की जीत होती है ! हर वो संकल्प जो सत्य और त्याग का अभिषेक करके किया जाता है वह निडर,पराक्रमी और अडिग होता है और अंततः विजय का अधिकारी भी होता है ! ऐसे ही सत्य-संकल्पित मनुष्य जीवन में उच्च आदर्श स्थापित कर समाज को नई दिशा प्रदान करते हैं ! भगवान् श्री राम को ज्ञात था कि कलियुग में जीने के लिए ऐसे ही उच्च आदर्शों और परम्पराओं की आवश्यकता पड़ेगी, जब मानव अपने कर्तव्यों को भूलकर असत्य के रास्ते पर चलते हुए अपनी निर्दोष,' सच्चाई की सीता' को सहज ही लालच,हवस और हैवानियत के रावन के हाथों सौंप देगा ! 

रावण जलाने की परंपरा हम वर्षों से निभाते आ रहे हैं मगर यह कभी नहीं सोचा कि क्या रावण जला भी ? और अगर जला तो कितना जला ? यह विचार करने की बात है कि अगर रावण सचमुच जल गया होता तो आज इतने रावणों की भरमार कभी नहीं होती ! आज स्थिति यह है कि जिधर देखिये बस रावण ही रावण नज़र आते हैं ! इन्हें पहचानना भी अत्यंत कठिन है क्योंकि पहले रावण के केवल दस सिर हुआ करते थे मगर आज उसके अनगिनत सिर होने लगे हैं और हर सिर के साथ चिपके होते हैं कई घिनौने चेहरे जिन पर सुन्दर-सुन्दर मुखौटे चढ़ाकर इन्हें इंसानी रूप दे दिया जाता है ! इन रावणों ने डरना भी छोड़ दिया है, क्योकि इन्हें मालुम है कि केवल राम ही इनका संहार कर सकते हैं जो अब जन्म नहीं लेते ! रही बात मनुष्यों की, तो उन्हें तो बस आँखें मूंदकर 'राम-कथा' सुनने की आदत है ! राम बनने के लिए राम के गुणों को आत्मसात करना उनके बस की बात नहीं है ! 

सोने की लंका जल जाने के बाद ये सारे के सारे रावण अब गाँव और शहर की गलियों और बस्तियों में रहने लगे हैं ! सीता-हरण के अलावा इनके और भी कई घिनौने काम होते हैं ! यही तो हैं जो आतंक फैलाकर बेकसूर लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं और फिर मातम के सिसकते सन्नाटे में बैठकर खूब जश्न मनाते हैं ! इन्हें जिंदा लोगों के होठों पर खिले मुस्कराहट के फूलों को गिनने से ज्यादा अच्छा लगता है बम और गोलियों से चिथड़े-चिथड़े हुए लाशों के टुकड़ों को गिनना ! इनके हवस के साए से गुज़रकर, हर बलात्कार के बाद सहमी हुई ऑंखें जीवन भर के लिए किसी न किसी रावण की घिनौनी तस्वीर को अपने सपनों के साथ नंगा सोये हुए पाती हैं ! कलयुग के रावणों की सोच उम्र की मर्यादा को भी लांघ जाती है और छोटी छोटी बच्चियों की चीखें समय के वक्षस्थल को चीर कर अपनी वेवसी की कहानी लिखते हुए मृत्यु को गले लगा लेती हैं ! 

वैसे तो रावण हर युग में पैदा होते रहे हैं मगर आज के रावणों ने सभी को पीछे छोड़ दिया है ! त्रेता के रावण ने तो कभी अपने देश के साथ विश्वासघात करने को सोचा भी नहीं होगा मगर कलियुग के ये रावन अपनी माटी के साथ भी गद्दारी करने से नहीं चूकते ! देश को लूट लूट कर अपनी सोने की लंका फिर से बसाने में ये इतने मशगूल हो जाते हैं कि इन्हें यह भी याद नहीं रहता कि जिसके सम्मान का सौदा ये बीच चौराहे पर कर रहे हैं वह इनका अपना ही देश है, अपनी ही मिटटी है, अपनी ही माँ है ! सोने की चिड़िया कहे जाने वाले इस देश में अब कहीं सोने की चिड़िया तो नहीं मिलती पर उसके नोचे हुए पंख जरुर मिलते हैं जो आज भी तड़प-तड़प कर हवा में उड़ते हैं मगर कोइ न कोइ रावण उन्हें अपनी मुट्ठी में जोर से दबोच कर कहीं दूर फेंक देता है ! अगर आप सोचना चाहेंगे तो आपको निश्चय ही महसूस होगा कि बेबसी के आंसू में घोलकर ,काली स्याही से लिखी गयी हर कहानी का सूत्रधार कोइ न कोइ रावण ही है ! 

इन कलियुगी रावणों की बातें करते हुए हमने त्रेता के उस रावण के बारे में तो सोचा ही नहीं जो आज भी भगवान् शिव की आराधना में तल्लीन है ! उसने अपनी कठोर तपस्या फिर से शुरू कर दी है ! वह महादेव से पूछना चाहता है, कलयुग में उसे किस पाप की सजा दी जा रही है ! आज के दरिंदों, आतंककारियों, देशद्रोहियों, बलात्कारियों, कुकर्मियों,विषधरों को रावन की संज्ञा देकर उसके नाम को क्यों कलंकित किया जा रहा है ! हे शिव ! "मैंने तो हमेशा स्त्रियों का सम्मान किया, अकारण किसी निर्दोष को कभी नहीं मारा ! किसी दुल्हन से उसका पति और माँ से उसके कलेजे का टुकड़ा भी नहीं छीना, अपने देश को लूटकर मातृभूमि के साथ कभी गद्दारी भी नहीं की, राक्षस होकर भी ऐसा कोइ घिनौना काम मर्यादा की सीमा लांघकर कभी नहीं किया जैसा आज का मानव कर रहा है फिर इन्हें 'रावण' कहकर मुझे क्यों बदनाम किया जा रहा है ! हे महादेव ! अगर आप मुझसे सचमुच प्रसन्न हैं तो मुझे बस यह वरदान दें कि आज के बाद ऐसे घृणित लोगों के लिए प्रयुक्त होने वाले नाम 'रावण' की संज्ञा से मुझे कोई किसी भी युग में संबोधित न करे !" 


                                                                             - ज्ञानचंद 'मर्मज्ञ '