ज्ञानचंद मर्मज्ञ

मेरे बारे में

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Bangalore, Karnataka, India
मैंने अपने को हमेशा देश और समाज के दर्द से जुड़ा पाया. व्यवस्था के इस बाज़ार में मजबूरियों का मोल-भाव करते कई बार उन चेहरों को देखा, जिन्हें पहचान कर मेरा विश्वास तिल-तिल कर मरता रहा. जो मैं ने अपने आसपास देखा वही दूर तक फैला दिखा. शोषण, अत्याचार, अव्यवस्था, सामजिक व नैतिक मूल्यों का पतन, धोखा और हवस.... इन्हीं संवेदनाओं ने मेरे 'कवि' को जन्म दिया और फिर प्रस्फुटित हुईं वो कवितायें,जिन्हें मैं मुक्त कंठ से जी भर गा सकता था....... !
!! श्री गणेशाय नमः !!

" शब्द साधक मंच " पर आपका स्वागत है
मेरी प्रथम काव्य कृति : मिट्टी की पलकें

रौशनी की कलम से अँधेरा न लिख
रात को रात लिख यूँ सवेरा न लिख
पढ़ चुके नफरतों के कई फलसफे
इन किताबों में अब तेरा मेरा न लिख

- ज्ञान चंद मर्मज्ञ

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रविवार, 21 नवंबर 2010

सब्र का आकाश पाया एक टूटी पाँख में!

कविता ,गीत और ग़ज़ल के बाद आज मै आप सबके बीच कुछ मुक्तक लेकर उपस्थित हुआ हूँ ! आशा है आप पूर्व की भाँति अपनी सार्थक टिप्पणियों द्वारा मुझे अनुग्रहीत करेंगे !  
                  
                                                    मुक्तक 
 १.
    ये अंधेरों का शहर है  दीप आ तुझको  जला दूँ ,
    धुन्ध सा वीरान घर है दीप आ तुझको जला दूँ ,
    कौन  से  तूफ़ान  की  क़ीमत चुकानी  है  तुझे ,
    रोशनी तो बेख़बर है  दीप आ तुझको  जला दूँ !

२.
     हर सुबह को साँझ  में ढलते  हुए देखा गया है ,
     पत्थरों  को  बर्फ  सा  गलते हुए देखा गया है ,
     राम  तो वनवास जाते अब नहीं दिखते कभी ,
     पर सिया को आज भी जलते हुए देखा गया है!

३.
         टूट कर जो गिर गये, वो तारे कहाँ मिलते हैं,
      नदी  की  उम्र  तक  किनारे  कहाँ  मिलते हैं,
      ढूढने  वालों  बस  एक  बात  याद  रख लेना,
      वक्त   की  राख  में  अंगारे  कहाँ  मिलते  हैं!

४.
         रोशनी   दिये  में  पाई  आग  पाई  राख  में,
      बादलों की साजिशें सावन ने पाई आँख  में ,
      उम्र भर उड़ता रहा,  उड़ता रहा,  उड़ता रहा,
      सब्र  का  आकाश  पाया  एक  टूटी  पाँख में!




                                                                                                             -ज्ञानचंद मर्मज्ञ