"मौत" भाग-२
"हम अभी से धुआं पी रहे हैं"
मौत का जाम खाली हुआ तो,
ढल गयीं खुद शराबी निगाहें!
मौत के सामने सर झुका लीं,
हाय वो इन्क़लाबी निगाहें!
भूल से जिंदगी पी गए जो,
मौत की बद्ददुआ पी रहे हैं!
कल तो अंगार पीना पड़ेगा,
हम अभी से धुआं पी रहे हैं !
बर्फ की मूर्तियाँ ना बिकेंगी,
माटी के नयन कौन लेगा !
रंग चाहे हज़ारों खिले हों ,
पत्थरों के सपन कौन लेगा !
किस लहू से समंदर भरा था,
वक्त पर ज्वार भी आ सका ना!
चल पड़े थे पकड़ने किनारा,
हाथ मँझधार भी आ सका ना!
अगले अंकों में ज़ारी ...........
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
37 टिप्पणियां:
बर्फ की मूर्तियाँ ना बिकेंगी,
माटी के नयन कौन लेगा !
रंग चाहे हज़ारों खिले हों ,
पत्थरों के सपन कौन लेगा
सत्य को उकेरता मार्मिक चित्रण यथार्थ बोध कराता है।
बर्फ की मूर्तियाँ ना बिकेंगी,
माटी के नयन कौन लेगा !
रंग चाहे हज़ारों खिले हों ,
पत्थरों के सपन कौन लेगा !....
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ज्ञान जी ।
.
बहुत सुंदर भावपूर्ण पंक्तियाँ.
रंग चाहे हज़ारों खिले हों ,
पत्थरों के सपन कौन लेगा !
.बहुत मार्मिक और सटीक अभिव्यक्ति..हर पंक्ति दिल को छू जाती है..
शानदार.....आपकी कवितायेँ कुछ अलग रंग लिए होती हैं....लाजवाब लगी पोस्ट|
मौत एक सार्वभौम सत्य है उसकी काव्याभिव्यक्ति द्वारा लोगों को जागरूक करना ठीक है.
रंग चाहे हजारों खिले हों
पत्थरों के सपन कौन लेगा
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति !
भावों की सुन्दर प्रस्तुति।
बर्फ की मूर्तियाँ ना बिकेंगी,
माटी के नयन कौन लेगा !
रंग चाहे हज़ारों खिले हों ,
पत्थरों के सपन कौन लेगा !....
बहुत बढ़िया, लाजवाब ज्ञान जी!
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
बर्फ की मूर्तियाँ ना बिकेंगी,
माटी के नयन कौन लेगा !
रंग चाहे हज़ारों खिले हों ,
पत्थरों के सपन कौन लेगा !
संवेदनशील पंक्तियाँ
भूल से जिंदगी पी गए जो,
मौत की बद्ददुआ पी रहे हैं!
कल तो अंगार पीना पड़ेगा,
हम अभी से धुआं पी रहे हैं !
अहा, क्या कहने है.पढ़ते ही दिलो-दिमाग़ पर छा जाने वाली पंक्तियाँ.
आपकी क़लम और कलाम के तो हम कायल हैं,मर्मज्ञ जी.
bhut sunder abhivakti...
भूल से जिंदगी पी गए जो, मौत की बद्ददुआ पी रहे हैं!
खूबसूरत पंक्तियाँ
मृत्यु गीत ऐसे स्वर में बहुत कम गा पाते होंगे...
बहुत बहुत सुन्दर...
बर्फ की मूर्तियाँ ना बिकेंगी,
माटी के नयन कौन लेगा !
रंग चाहे हज़ारों खिले हों ,
पत्थरों के सपन कौन लेगा !
माटी के नयन और पत्थरों के सपन. ये दोनों बिम्ब बिल्कुल नए लगे।
बहुत अच्छी पंक्तियां।
भूल से ज़िन्दगी पी गए जो ,मौत की बद्दुआ पी रहें हैं ,सुन्दर भाव प्रस्तुति मौत का आलिंगन ,चुम्बन ,स्वीकृति कराती रचना .
beautifully expressed !!
Nice read
भूल से जिंदगी पी गए जो,
मौत की बद्ददुआ पी रहे हैं!
कल तो अंगार पीना पड़ेगा,
हम अभी से धुआं पी रहे हैं !
वाह क्या बात है! सुन्दर और सार्थक पंक्तियाँ के लिए आभार.
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना ....
मौत के सामने सर झुका लीं,
हाय वो इन्क़लाबी निगाहें!
यह आजकल की निगाहें हैं भाई जी !
:-)
रंग चाहे हज़ारों खिले हों ,
पत्थरों के सपन कौन लेगा
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
आपकी साहित्य-धर्मिता को प्रणाम!
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प्रवाहित रहे यह सतत भाव-धारा।
जिसे आपने इंटरनेट पर उतारा॥
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’व्यंग्य’ उस पर्दे को हटाता है जिसके पीछे भ्रष्टाचार आराम फरमा रहा होता है।
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
मर्मग्य जी आपकी रचनायें हमेशा ही दिल को छूती हैं मगर इस रचना ने तो कमाल कर दिया हर शब्द हर पँक्ती गहरे भाव लिये हुये है।
भूल से जिंदगी पी गए जो,
मौत की बद्ददुआ पी रहे हैं!
कल तो अंगार पीना पड़ेगा,
हम अभी से धुआं पी रहे हैं !
लाजवाब पँक्तियाँ। बधाई।
रंग चाहे हज़ारों खिले हों ,
पत्थरों के सपन कौन लेगा !
मार्मिक और सटीक अभिव्यक्ति..भावपूर्ण रचना ....
भावपूर्ण,छंदबद्ध,लयबद्ध सुन्दर रचना....
गुनगुनाते हुए बहुत अच्छा लगता है
क्या बात है ज्ञानजी. क्या संवेदना और क्या अभिव्यक्ति का अंदाज़.
पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूं.. बहुत सुंदर रचना
नये बिम्बों और उचित शब्द-योजना ने भाषा में बिलकुल ताजगी भर गयी है। बहुत ही सुन्दर रचना। इसके लिए बधाई और साधुवाद।
भावनाओं का बहुत सुंदर चित्रण . ...
यथार्थ का सुन्दर वैचारिक प्रस्तुतिकरण...हार्दिक शुभकामनायें।
भूल से जिंदगी पी गए जो,
मौत की बद्ददुआ पी रहे हैं!
कल तो अंगार पीना पड़ेगा,
हम अभी से धुआं पी रहे हैं !
जिंदगी विरोधाभासों से पटी पड़ी है ।
जीवन और मृत्यु पर विचार करने का अवसर हमें बिरले ही मिलता है। बहुधा,हम न तो जी रहे होते हैं,न मर रहे होते हैं।
किस लहू से समंदर भरा था,
वक्त पर ज्वार भी आ सका ना!
चल पड़े थे पकड़ने किनारा,
हाथ मँझधार भी आ सका ना!
कविता की प्रत्येक पंक्ति में अत्यंत सुंदर भाव हैं.... संवेदनाओं से भरी बहुत सुन्दर कविता...
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण कविता है! हर एक पंक्तियाँ लाजवाब है! बेहतरीन प्रस्तुती!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
ग चाहे हज़ारों खिले हों ,
पत्थरों के सपन कौन लेगा !
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
रौशनी की कलम से अँधेरा न लिख
रात को रात लिख यूँ सवेरा न लिख
पढ़ चुके नफरतों के कई फलसफे
इन किताबों में अब तेरा मेरा न लिख
सब से पहले तो अपनी काव्यकृति के लिए बधाई स्वीकार करें
बहुत ख़ूबसूरत क़ता है ,,,इस जज़्बे की बहुत ज़रूरत है हमें
इस सार्थक रचना के अगले अंक का इंतज़ार रहेगा
भावना प्रवाह में सीजा भीगा गीत .सुन्दर मनोहर भाव .
मौत को जब ज़िन्दगी गाने लगे तब ऐसे गीत बनते हैं!
सुन्दर!
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