आत्मदाह
कोशिशें,
किसी उपग्रह से असफलता का चक्कर लगाती हुईं
मेरे ज़ख्मों की डायरी को दीमक बनकर चाट गयीं !
भावनाएं,
अनियंत्रित चुम्बकीय मान्यताओं से चिपक कर ठूँठ हो गयीं
और सपने ,
आँखों की गहराई नापते-नापते सागर की सच्चाई हो गए !
फिर भी मेरा विश्वास
हाथों में बहारों का राजाज्ञा -पत्र लिए यूँ ही
राजमहल की सड़कों पर पसरे-पसरे
उस सोने की मेहराब को देखता रहा ,
जिसका
कम से कम एक अणु
मेरे संकल्प का पुनर्जनम है ,
मेरे ख़ून की शहादत है !
मगर आज
मैं तुम्हारा राजाज्ञा-पत्र तुम्हें वापस करता हूँ,
तुम
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
-
46 टिप्पणियां:
मगर आज
मैं तुम्हारा राजाज्ञा-पत्र तुम्हें वापस करता हूँ,
तुम
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
Gazab kaa likha hai!
कोशिशें,
किसी उपग्रह से असफलता का चक्कर लगाती हुईं
मेरे ज़ख्मों की डायरी को दीमक बनकर चाट गयीं !
भावनाएं,
अनियंत्रित चुम्बकीय मान्यताओं से चिपक कर ठूँठ हो गयीं
और सपने ,
आँखों की गहराई नापते-नापते सागर की सच्चाई हो गए !
bahut hi badhiyaa ... vatvriksh ke liye bhejen rasprabha@gmail.com per tasweer parichay aur blog link ke saath
पीड़ा सहन करना सीखना होगा।
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ ।
बहुत बढिया प्रस्तुति...
आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
जीने की यही उत्कट इच्छा हमें नित नए कर्म की तरफ प्रेरित करती है
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
जीवन क्षण भंगुर है, सार्थक, मुक्त क्षण भर जीवन ही एक सम्पूर्ण जीवन है... सारगर्भित उत्कृष्ट विचार..
गहन अभिव्यक्ति
कोशिशें , भावनाएं , सपने , विश्वास से होती हुई आत्म दाह की पीड़ा तक का सफ़र --ग़ज़ब की प्रस्तुति ।
बधाई ।
आत्मदाह की पीडा आत्मदाह से भी भयंकर होती है …………आत्मदाह से पहले ना जाने कितनी मौत मर चुका होता है…………इस अहसास का बेहतरीन चित्रण किया है।
इक़ मुक़म्मल रचना. वाह!
-
व्यस्त हूँ इन दिनों
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ
जीवन की सच्चाई को वयां करती हुई अत्यंत मार्मिक रचना , बधाई
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
अंतर्मन की पीड़ा की बहुत गहन अभिव्यक्ति..... बेहतरीन रचना
बहुत सुंदर लिखा है आपने भाई ज्ञानचंद जी आपने बधाई |
एक-एक शब्द से गहन चिंतन झांक रहा है।
बहुत सुंदर ज्ञान जी!
गहन चिंतन .
मार्मिक,भावना प्रधान, सुन्दर छंदमुक्त कविता .
तुम
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ ....
गहरी यंत्रणा और क्षोभ से गुजरती है आपकी रचना .... बहुत कमाल का लिखा है ..
क्लांत मन में उर्जा तरंगित करने वाली कविता।
मर्मज्ञ जी, बहुत प्रभावी है आपकी काव्यधर्मिता।
अपने नाम को सार्थक करती हुयी आपकी रचना उत्कृष्ट है.
मर्मज्ञ जी!
नसों में रक्त का संचार द्विगुणित कर गई यह कविता. आपके शब्द सन्योजन और भाव सम्प्रेषण के तो कायल तो हैं ही हम लोग,यह उसी शृन्खला की एक ओजस्वी कड़ी है!!
वाह........ ! अभी तक आपके छंदों की जादूगिरी में बंधे थे आज मुक्तछंद में उन्मुक्त भावों की रवानगी के क्या कहने.... ! पत्थर भी अनुप्राणित हो जाएँ... शिथिल भुजदंड भी फड़क पड़ें.... कंपकंपाते कर भी सहसा गांडीव उठा ले..........! महोदय ! आप इस कविता का प्रयोजन पूरा जानें !! आभार !!!
bahut badhiya rachna.........
दिल की गहराई से दर्द को हद तक महसूस कर लिखी गई कृति के लिये बधाई !
आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !......
सुंदर ! अति सुंदर ! शब्द कम पढ़ रहे हैं !
ज्ञानचंद जी,
वाह.....वाह......सुभानाल्लाह......शब्दों का इतना ज़बरदस्त चयन.....वाह....बहुत ही खूबसूरत लगी ये पोस्ट.....
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
बस क्षण भर जीना ही तो सुलभ नही। अन्तस की पीडा कहाँ जीने देती है। सुब्दर रचना के लिये बधाई।
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
--
मर्मज्ञ जी!
आपने बहुत ही सारगर्भित रचना प्रस्तुत की है!
जो मन में जीवन जीने की आसा का संचार करती है!
कोशिशें,
किसी उपग्रह से असफलता का चक्कर लगाती हुईं
मेरे ज़ख्मों की डायरी को दीमक बनकर चाट गयीं !
भावनाएं,
अनियंत्रित चुम्बकीय मान्यताओं से चिपक कर ठूँठ हो गयीं
और सपने ,
आँखों की गहराई नापते-नापते सागर की सच्चाई हो गए !
बहुत गहरे भाव, सुंदर कविता. बढिया प्रस्तुति के लिए बधाई.
एक विश्वास के टूटन से सुदृढ हो रहा दूसरा विश्वास!
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ
अंतर्मन की पीड़ा की बहुत गहन अभिव्यक्ति. बेहतरीन रचना
भावनाएं,
अनियंत्रित चुम्बकीय मान्यताओं से चिपक कर ठूँठ हो गयीं
और सपने ,
आँखों की गहराई नापते-नापते सागर की सच्चाई हो गए !
फिर भी मेरा विश्वास
हाथों में बहारों का राजाज्ञा -पत्र लिए यूँ ही
राजमहल की सड़कों पर पसरे-पसरे
उस सोने की मेहराब को देखता रहा ,
आप वाकई मर्मज्ञ हैं भावनाओं को अभिव्यक्त करने में|
तुम
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
बहुत गहन अभिव्यक्ति..लाज़वाब रचना..आपकी लेखनी को नमन..
एक अलग ही भाव-संसार में ले जाती कविता..... बहुत सुन्दर...
हार्दिक बधाई।
मर्मज्ञ जी बहुत गहरे पैठ कर लिखे हैं
मैं तुम्हारा राजाज्ञा-पत्र तुम्हें वापस करता हूँ,
तुम
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
फिर भी मेरा विश्वास
हाथों में बहारों का राजाज्ञा -पत्र लिए यूँ ही
राजमहल की सड़कों पर पसरे-पसरे
उस सोने की मेहराब को देखता रहा ,
जिसका कम से कम एक अणु
मेरे संकल्प का पुनर्जनम है ,
बहुत बढिया प्रस्तुति...बधाई ।
.
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ ...
!wow!..Outstanding creation !
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"मगर आज
मैं तुम्हारा राजाज्ञा-पत्र तुम्हें वापस करता हूँ
तुम
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो
मुझे mera vah अणु लौटा दो "
बहुत सुन्दर........मर्म को स्पर्श करती ......सार्थक शब्द साधना
ओह क्या बात कही है.....
असंख्य व्यथित ह्रदय के भावों को आपने शब्दों में बाँध अभिव्यक्ति दी है...
साधुवाद आपका...
अद्वितीय रचना...
antas ki lizlizati socho aur kashmokash se nikalti ek behtareen rachna ka srijan.
Hamesh ki tarah shandar.
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पैरों तले जमीन खिसक जाए!
क्या इससे मर्दानगी कम हो जाती है ?
एक मुक्कमल कविता.. बहुत बढ़िया..
मेरी क्रांति को मुक्त कर दो!
मुझे मेरा वह अणु लौटा दो,
जिसकी आँच में
अपने लहू को खौलाकर फिर से पी सकूँ ,
और आत्मदाह की पीड़ा से मुक्त होकर
कम से कम क्षण भर और जी सकूँ !
बहुत सुंदर लिखा है आपने क्या भाव हैं?
क्षणों का हिसाब लगा कर जीने का खेल, एक बार निर्तल वर्मा से सीखें.
अच्छी कविता आपने गलत समय पर पोस्ट कर दिया भाई मर्मग्य जी यह समय रंग गुलाल का है मेरा आशय आपकी आलोचना करना नही है होली की शुभकामनाओं के साथ आपका दोस्त
बहुत खूब भाई जी !! शुभकामनायें
bahut sunder....
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