ज्ञानचंद मर्मज्ञ

मेरे बारे में

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Bangalore, Karnataka, India
मैंने अपने को हमेशा देश और समाज के दर्द से जुड़ा पाया. व्यवस्था के इस बाज़ार में मजबूरियों का मोल-भाव करते कई बार उन चेहरों को देखा, जिन्हें पहचान कर मेरा विश्वास तिल-तिल कर मरता रहा. जो मैं ने अपने आसपास देखा वही दूर तक फैला दिखा. शोषण, अत्याचार, अव्यवस्था, सामजिक व नैतिक मूल्यों का पतन, धोखा और हवस.... इन्हीं संवेदनाओं ने मेरे 'कवि' को जन्म दिया और फिर प्रस्फुटित हुईं वो कवितायें,जिन्हें मैं मुक्त कंठ से जी भर गा सकता था....... !
!! श्री गणेशाय नमः !!

" शब्द साधक मंच " पर आपका स्वागत है
मेरी प्रथम काव्य कृति : मिट्टी की पलकें

रौशनी की कलम से अँधेरा न लिख
रात को रात लिख यूँ सवेरा न लिख
पढ़ चुके नफरतों के कई फलसफे
इन किताबों में अब तेरा मेरा न लिख

- ज्ञान चंद मर्मज्ञ

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सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

फूल पर भी न सोया गया



                                                              फूल पर भी न सोया गया



                    बीज  ऊसर  में बोया गया 
                    दर्द  में  दिल  डुबोया गया 


                                             प्यास चुभने लगी कंठ में 
                                             फूल पर भी न सोया गया 


                    फ़ेंक  डाला धनुष तोड़कर 
                    रंग  सातों  सँजोया  गया 


                                            तोड़ कर मेरा जलता दिया 
                                            आसमाँ  में  पिरोया  गया 


                    बादलों  में नमी ढल गयी 
                    चाह कर भी न रोया गया 


                                              दाग़ मजबूरियों का लगा  
                                              ख़ून से भी न धोया गया 


                    चंद साँसों का ही बोझ था  
                    ज़िन्दगी से न ढोया गया 


                                            रोशनी की फ़सल काटकर
                                            फिर अँधेरों को बोया गया 

                                                                                                                  -ज्ञानचंद मर्मज्ञ 

46 टिप्‍पणियां:

रंजना ने कहा…

वाह...वाह...वाह...

अतिसुन्दर मुग्धकारी रचना..

भाव और शब्द सौन्दर्य ने मन मोह लिया वाह...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बेहतरीन, बहुत ही अच्छी, कोई शब्द नहीं है इसके लिये।

सदा ने कहा…

रोशनी की फसल काटकर ...बहुत ही खूबसूरत शब्‍दों का संगम ...।

केवल राम ने कहा…

रोशनी की फ़सल काटकर
फिर अँधेरों को बोया गया

आपने बिलकुल सही कहा है ....जब रोशनी नहीं होगी तब ही अँधेरे का बजूद है ...वर्ना रोशनी के रहते अँधेरा पास नहीं फटक ....बहुत सुंदर रचना ..आपका शुक्रिया

करण समस्तीपुरी ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
करण समस्तीपुरी ने कहा…

चंद साँसों का ही बोझ था
ज़िन्दगी से न ढोया गया

मैं जिस कवि मर्मज्ञ को जानता हूँ उनकी रचनाओं में आधुनिक विसंगतियों पर अवसाद तो होता है किन्तु आशावादिता सिसकी ले रही होती है. पर पीड़ ऐसी पर्वत सी हो चली है अब कि कवि को कहना पड़ा, "रोशनी की फ़सल काटकर
फिर अँधेरों को बोया गया". आखिर कब छंटेगा यह अँधेरा.... ? विचार ही नहीं कर्म को उद्वेलित करना होगा. कवि का व्यंग्य सुगढ़ है.

kshama ने कहा…

चंद साँसों का ही बोझ था
ज़िन्दगी से न ढोया गया


रोशनी की फ़सल काटकर
फिर अँधेरों को बोया गया
Kya gazab alfaaz hain!

डॉ टी एस दराल ने कहा…

दाग़ मजबूरियों का लगा
ख़ून से भी न धोया गया

सशक्त वक्तव्य ।

Sushil Bakliwal ने कहा…

प्यास चुभने लगी कंठ में
फूल पर भी न सोया गया.
बेहतरीन प्रस्तुति...

विशाल ने कहा…

बहुत ही बढ़िया .

चंद साँसों का ही बोझ था
ज़िन्दगी से न ढोया गया
रोशनी की फ़सल काटकर
फिर अँधेरों को बोया गया

आपकी कलम को सलाम

Kunwar Kusumesh ने कहा…

चंद साँसों का ही बोझ था
ज़िन्दगी से न ढोया गया

बड़ा दर्द है जी शेर में, वाह वाह,

रोशनी की फ़सल काटकर
फिर अँधेरों को बोया गया

गज़ब का लिखते हैं, मर्मज्ञ जी .

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

महसूस कर रहा हूँ ग़ज़ल के भाव!!उतारने की कोशिश कर रहा हूँ हृदय में!!

शारदा अरोरा ने कहा…

bahut khoobsoorat abhivyakti

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

अनोखे व्यंग्य के लिए, बसंत-पंचमी के साथ-साथ मुबारकवाद.

Dorothy ने कहा…

चंद साँसों का ही बोझ था
ज़िन्दगी से न ढोया गया

रोशनी की फ़सल काटकर
फिर अँधेरों को बोया गया

दिल की गहराईयों को छूने वाली एक खूबसूरत, संवेदनशील और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति. आभार.
सादर,
डोरोथी.

संध्या शर्मा ने कहा…

दाग़ मजबूरियों का लगा
ख़ून से भी न धोया गया

चंद साँसों का ही बोझ था
ज़िन्दगी से न ढोया गया

वाह........ मर्मज्ञ जी क्या खूब कहा है, बेमिसाल कृति जिसकी रचना सिर्फ आपकी कलम ही कर सकती है... सशक्त रचना..

संजय भास्‍कर ने कहा…

दाग़ मजबूरियों का लगा
ख़ून से भी न धोया गया
आपने बिलकुल सही कहा है
आपकी कलम को सलाम

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

चंद साँसों का ही बोझ था
ज़िन्दगी से न ढोया गया

बेहतरीन अभिव्यक्ति..... भावपूर्ण प्रस्तुति

पी.एस .भाकुनी ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना..
वसंत पंचमी की ढेरो शुभकामनाए....

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

बहुत ही अच्छी ग़ज़ल है.... फूल पर भी न सोया गया ... सबसे अधिक पसंद आया ...

vandana gupta ने कहा…

इतनी गहन अभिव्यक्ति है कि निशब्द हो गयी हूँ।
बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं।

Anita ने कहा…

बहुत सुंदर गजल, चंद सांसों का ही बोझ था, जिंदगी से न ढोया गया, कितनी कटु सच्चाई है यह आज के समाज की, जहाँ छोटी-छोटी बात पर लोग आत्महत्या करने की बात सोचने लगे हैं !

बेनामी ने कहा…

ज्ञानचंद जी,

बहुत खुबसूरत ग़ज़ल....हर शेर उम्दा...वाह...

Dorothy ने कहा…

आपको वसंत पंचमी की ढेरों शुभकामनाएं!
सादर,
डोरोथी.

ZEAL ने कहा…

बादलों में नमी ढल गयी
चाह कर भी न रोया गया

प्रत्येक पंक्ति जिंदगी की तल्ख़ सच्चाई बयान कर रही है ।
उम्दा रचना ।
आभार।

.

बेनामी ने कहा…

चंद साँसों का ही बोझ था
ज़िन्दगी से न ढोया गया

गजल का हर एक शेर काबिलेतारीफ है!
--
बसन्तपञ्चमी की शुभकामनाएँ।

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

चंद साँसों का ही बोझ था
ज़िन्दगी से न ढोया गया

वाह......
गुनगुनाने वाली नज़्म .....

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

बहुत ही प्‍यारी गजल कही है आपने। बधाई स्‍वीकारें।

---------
समाधि द्वारा सिद्ध ज्ञान।
प्रकृति की सूक्ष्‍म हलचलों के विशेषज्ञ पशु-पक्षी।

कुमार राधारमण ने कहा…

हर कवि अपने समय के प्रति जागरूक होता है। जब माहौल निराशा और अवसाद से भरा हो,तो उसे भी आवाज़ देना ठीक।

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

सुन्दर गीत... अस्सी के दशक के गीत याद आ गए.. बहुत बढ़िया..

amrendra "amar" ने कहा…

great bahut achhi rachna bahut acche sabdo ke saath ..........badhai sweekar karen

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

चंद साँसों का ही बोझ था
ज़िन्दगी से न ढोया गया
रोशनी की फ़सल काटकर
फिर अँधेरों को बोया गया
मर्मज्ञ जी , बहुत ही गहरा भाव लिये बेहतरीन कविता.......... . सुंदर प्रस्तुति.
.
सैनिक शिक्षा सबके लिये

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

चंद सांसों का ही बोझ था
जिन्दगी से न ढोया गया
बहुत उम्दा शेर...पूरी ग़ज़ल मुकम्मल |

Anamikaghatak ने कहा…

atyant sundar tarike se bhavo ko ukera hai aapne.........shubhakamnaaye

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

रोशनी की फ़सल काटकर
फिर अँधेरों को बोया गया

आपने बिलकुल सही कहा है ..
बेहतरीन प्रस्तुति.....आपका शुक्रिया

अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Roy ने कहा…

Highly touching expressions!

POOJA... ने कहा…

वाह...
बहुत उम्दा रचना है
रचना की अदायगी इतनी खूबसूरत है
की इसकी तारीफ का शब्द अभी खोजा न गया...

Suman ने कहा…

bahut sunder rachna akhri do line mujhe bahut achi lagi..

वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर ने कहा…

रोशनी की फसल काटकर...............एक बार फिर आपकी कलम से शाश्वत सत्य का प्रवाह.,,.....................बहुत खूब।


एक निवेदन:-
मैं वृक्ष हूँ। वही वृक्ष, जो मार्ग की शोभा बढ़ाता है, पथिकों को गर्मी से राहत देता है तथा सभी प्राणियों के लिये प्राणवायु का संचार करता है। वर्तमान में हमारे समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित है। हमारी अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं तथा अनेक लुप्त होने के कगार पर हैं। दैनंदिन हमारी संख्या घटती जा रही है। हम मानवता के अभिन्न मित्र हैं। मात्र मानव ही नहीं अपितु समस्त पर्यावरण प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः मुझसे सम्बद्ध है। चूंकि आप मानव हैं, इस धरा पर अवस्थित सबसे बुद्धिमान् प्राणी हैं, अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि हमारी रक्षा के लिये, हमारी प्रजातियों के संवर्द्धन, पुष्पन, पल्लवन एवं संरक्षण के लिये एक कदम बढ़ायें। वृक्षारोपण करें। प्रत्येक मांगलिक अवसर यथा जन्मदिन, विवाह, सन्तानप्राप्ति आदि पर एक वृक्ष अवश्य रोपें तथा उसकी देखभाल करें। एक-एक पग से मार्ग बनता है, एक-एक वृक्ष से वन, एक-एक बिन्दु से सागर, अतः आपका एक कदम हमारे संरक्षण के लिये अति महत्त्वपूर्ण है।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

आदरणीय ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी
सस्नेहाभिवादन !

पूरी ग़ज़ल शानदार है । हर शे'र काबिले-ता'रीफ़ है …

रोशनी की फ़सल काटकर
फिर अँधेरों को बोया गया


यह शे'र साथ लिये' जा रहा हूं …

बसंत पंचमी सहित बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार

Amrita Tanmay ने कहा…

बेहतरीन प्रस्तुति...बहुत ही अच्छी

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

बहुत खूब...
रोशनी की फ़सल काटकर
फिर अँधेरों को बोया गया

बड़ी अच्छी बात कह दी...।

प्रियंका

बेनामी ने कहा…

आपकी यह रचना पढ़ कर दुष्यंत जी की यह पंक्तियाँ याद आ गयीं...

हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खडा करना मेरा मकसद नही
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

चंद साँसों का ही बोझ था ,
ज़िन्दगी से न ढोया गया ।

वाह, मर्मज्ञ जी, क्या खूब शेर कहा है।

‘बहुत कठिन है डगर पनघट की‘

इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बधाई।

Minakshi Pant ने कहा…

चंद साँसों का ही बोझ था
ज़िन्दगी से न ढोया गया
रोशनी की फ़सल काटकर
फिर अँधेरों को बोया गया

खुबसूरत शब्दों का सुन्दर ताना बाना !
सुन्दर रचना !

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

सभी पाठकों का हृदय से धन्यवाद प्रेषित करता हूँ जिनके प्रोत्साहन के बिना भावों को शब्दों में गूंथना संभव नहीं है !