ज्ञानचंद मर्मज्ञ

मेरे बारे में

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Bangalore, Karnataka, India
मैंने अपने को हमेशा देश और समाज के दर्द से जुड़ा पाया. व्यवस्था के इस बाज़ार में मजबूरियों का मोल-भाव करते कई बार उन चेहरों को देखा, जिन्हें पहचान कर मेरा विश्वास तिल-तिल कर मरता रहा. जो मैं ने अपने आसपास देखा वही दूर तक फैला दिखा. शोषण, अत्याचार, अव्यवस्था, सामजिक व नैतिक मूल्यों का पतन, धोखा और हवस.... इन्हीं संवेदनाओं ने मेरे 'कवि' को जन्म दिया और फिर प्रस्फुटित हुईं वो कवितायें,जिन्हें मैं मुक्त कंठ से जी भर गा सकता था....... !
!! श्री गणेशाय नमः !!

" शब्द साधक मंच " पर आपका स्वागत है
मेरी प्रथम काव्य कृति : मिट्टी की पलकें

रौशनी की कलम से अँधेरा न लिख
रात को रात लिख यूँ सवेरा न लिख
पढ़ चुके नफरतों के कई फलसफे
इन किताबों में अब तेरा मेरा न लिख

- ज्ञान चंद मर्मज्ञ

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सोमवार, 1 नवंबर 2010

मेरे पिछले पोस्ट की कविताओं को जो स्नेह और आशीर्वाद आप सब ने  दिया उससे उत्साहित होकर आज मैं  आप सबके बीच अपनी एक ग़ज़ल लेकर प्रस्तुत  हुआ हूँ ! कृपया अपने  विचारों से मुझे अनुग्रहीत करने की कृपा करें !

 
सिसकियाँ उभरती हैं
 
सरहदों पर ये कैसी  सिसकियाँ उभरती  हैं
बस धुआं उभरता है, हिचकियाँ उभरती  हैं

जाने किस तसव्वुर की बात कर रहें हैं आप
ख़्वाब  में  गरीबों  के   रोटियाँ  उभरती   हैं

जब  से  दरवाज़ों  पर  हादसों  का  है पहरा
दस्तकें  उभरती  हैं, थपकियाँ  उभरती   हैं

लगता  है  ये चिंगारी  अब  ठहर न पायेगी
रह रह के ख़यालों में  बिज़लियाँ उभरती हैं 

इस शहर ने फूलों के  गुलशनों  को  रौदा है 
डर  डर  के मुंडेरों पर तितलियाँ  उभरती हैं

तूने  जो  जलाये थे  इस  वतन की राहों  में
उन  दीयों  के  गावों  में आंधियाँ उभरती हैं

इस नदी के वो क़िस्से  कुछ अजीब हैं यारों
सबके  डूब  जाने पर  कश्तियाँ  उभरती  हैं

चाहे   जितना  चाहो  आईना  बदल   डालो
इस  महल  के शीशे में  बस्तियाँ उभरती हैं

                                 - ज्ञानचंद मर्मज्ञ 

27 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

बेहद मार्मिक चित्रण्……………मौन कर दिया।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना।

रंजना ने कहा…

इस नदी के वो क़िस्से कुछ अजीब हैं यारों
सबके डूब जाने पर कश्तियाँ उभरती हैं !!!

वाह...लाजवाब ग़ज़ल !!!!

मार्मिक भाव मन को बिंध गए...

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

आदरणीय वंदना जी,प्रवीण जी और रंजना जी,
आप सब के हौसला अफ़जाई के लिए शुक्रिया !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

मर्मज्ञ जी बहुत ही ख़ूबसूरत भावों को समेटे एक बहुत ही सुंदर ग़ज़ल... किसी किसी शेर में बहर इधर उधर लग रही है.. लेकिन कुल मिलाकर आपकी पिछली रचना की तरह ही असरदार!!

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना।

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

सुन्दर अभिव्यक्ति...

लोकेन्द्र सिंह ने कहा…

दिल को छू लेने वाली रचना। आपको आपकी कृति के लिए बधाई और शुभकामनाएं।

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

इस शहर ने फूलों के गुलशनों को रौदा है
डर डर के मुंडेरों पर तितलियाँ उभरती हैं

bahut hee khoobsurat rachna!

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

..

मित्र ज्ञानचंद जी,

लगता है ये चिंगारी अब ठहर न पायेगी रह रह के ख़यालों में बिज़लियाँ उभरती हैं
@ क्या कोई चिंगारी बिजली से बुझ सकती है? चिंगारी और बिजली दोनों ही जलाती हैं. अंतर उनके स्वभाव में मान सकते हैं. एक छोटी से चिंगारी कुछ समय के बाद शोला रूप ले सकती है, जबकि बिजली तुरत गिरती है और भस्म करती है. ............. कुछ स्पष्ट नहीं हो पाया भाव.

इस शहर ने फूलों के गुलशनों को रौदा है डर डर के मुंडेरों पर तितलियाँ उभरती हैं ............ बेहद शानदार कल्पना.

तूने जो जलाये थे इस वतन की राहों में उन दीयों के गावों में आंधियाँ उभरती हैं
@ तूने जो जलाए चिराग वतन की राहों में
उस चिराग-ए-बस्ती में आंधियाँ उभरती हैं. ............... मुझे इस तरह मोडिफाई करके मज़ा आ गया.

शेष रचना परिपूर्ण है.
एक श्रेष्ठ रचना.

..

दिगम्बर नासवा ने कहा…

जाने किस तसव्वुर की बात कर रहें हैं आप
ख़्वाब में गरीबों के रोटियाँ उभरती हैं

Bahut hi lajawaab sher hai ... hakeekat khol kar likh di aapne ...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

..
चाहे जितना चाहो आईना बदल डालो
इस महल के शीशे में बस्तियाँ उभरती हैं
@ इस अंतिम बंध ने मन को मजबूती से बाँध दिया.
___________
"आइना" शब्द शायद टीक होगा. शब्दकोश देखिएगा. मैं फिलहाल नहीं देख पा रहा हूँ.

..

mridula pradhan ने कहा…

wah.bahot sundar.

तिलक राज कपूर ने कहा…

बहुत खूब।

Udan Tashtari ने कहा…

जाने किस तसव्वुर की बात कर रहें हैं आप
ख़्वाब में गरीबों के रोटियाँ उभरती हैं



-बहुत लाजवाब!!

Aruna Kapoor ने कहा…

चाहे जितना चाहो आईना बदल डालो
इस महल के शीशे में बस्तियाँ उभरती हैं

ati sundar kriti!

Surendra Singh Bhamboo ने कहा…

अति हृदय स्पर्शी चित्रण है।
इसके लिए आपका आभार
हमारे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

मालीगांव

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

बहुत अच्छा लिखते है...बधाई...

अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Roy ने कहा…

“इस नदी के वो क़िस्से कुछ अजीब हैं यारों
सबके डूब जाने पर कश्तियाँ उभरती हैं” आपके शे’र लाजवाब हैं मर्मज्ञ जी. मुझे तो इन की तारीफ करने के लिए अलफ़ाज़ भी मयस्सर नहीं हो पा रहे हैं. आफरीन....निहायत उम्दा अंदाज़ है आपका. अश्विनी कुमार रॉय

विष्णु बैरागी ने कहा…

गजल की समझ बिलकुल ही नहीं है किन्‍तु रचना के भाव मन को अच्‍छे लगे।

Asha Joglekar ने कहा…

मर्मज्ञ जी आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आई बहुत ही सुन्दर और मंजी हुई हैं आपकी रचनाएं । गज़ल बहुत पसंद आई खास कर ये शेर -
जब से दरवाज़ों पर हादसों का है पहरा
दस्तकें उभरती हैं, थपकियाँ उभरती हैं

लगता है ये चिंगारी अब ठहर न पायेगी
रह रह के ख़यालों में बिज़लियाँ उभरती हैं

मेरे खयाल से चिंगारी बिजली के सामने कहां ठहर पायेगी ये भाव है आपकी रचना में बिजली की लपट में जो तेज है रोशनी है शक्ति है वह चिंगारी में कहां ।

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

सभी पाठकों के प्रति आभार प्रकट करता हूँ ! आप सबकी टिप्पणी मेरे लिए संजीवनी है ! कृपया स्नेह बनायें रखें !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ

Amit K Sagar ने कहा…

उम्दा, उम्दा, उम्दा वाह.
--
धनतेरस व दिवाली की सपरिवार बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं.
-
वात्स्यायन गली

sandhyagupta ने कहा…

जाने किस तसव्वुर की बात कर रहें हैं आप
ख़्वाब में गरीबों के रोटियाँ उभरती हैं

सुंदर ,भावपूर्ण और मार्मिक अभिव्यक्ति.शुभकामनायें.

अनुपमा पाठक ने कहा…

sundar shabdrachna!

संगीता पुरी ने कहा…

इस सुंदर से नए ब्‍लॉग के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

बेनामी ने कहा…

लेखन अपने आपमें रचनाधर्मिता का परिचायक है. लिखना जारी रखें, बेशक कोई समर्थन करे या नहीं!
बिना आलोचना के भी लिखने का मजा नहीं!

यदि समय हो तो आप निम्न ब्लॉग पर लीक से हटकर एक लेख
"आपने पुलिस के लिए क्या किया है?"
पढ़ा सकते है.

http://baasvoice.blogspot.com/
Thanks.